प्रजाति कुछ विशेष तत्त्वों से मिलकर बनती है। यह विशेष तत्त्व उसके अस्तित्व को दूसरी प्रजातियों से भिन्न करते हैं। इन विशेष तत्वों के आधार पर ही प्रजाति का वर्गीकरण होता है। सामान्य रूप से प्रजातियों में भी तीन प्रकार के तत्त्व पाए जाते हैं –
1. अंतर्नस्ल के तत्त्व – एक प्रजाति के लोग दूसरी प्रजाति के लोगों से विवाह नहीं करते हैं। इसका कारण पहले काफी सीमा तक भौगोलिक स्थिति रहा है। भौगोलिक स्थितियों के कारण एक प्रजाति के लोग दूसरों से कम मिल पाते हैं। दूसरे, प्रत्येक प्रजाति स्थायित्व रखने का प्रयत्न करती है। गतिशीलता के अभाव में अंतर्नस्ल का तत्त्व उग्र रूप से पाया जाता है; जैसे-टुंड्रा प्रदेश के लैप, सेमॉयड और एस्कीमो मानव। इनमें अंर्तप्रजातीय विवाह होता है। यही कारण है। कि इनमें अंतर्नस्ल के तत्त्व उग्र रूप से मिलते हैं। इस प्रकार के विवाह से रक्त की शुद्धता, संस्कृति की रक्षा तथा समान प्रजातीय लक्षणों का स्थायित्व होता है। ऊँची प्रजातियाँ भी अपनी रक्त की पवित्रता को बनाए रखने के लिए अंर्तप्रजातीय विवाह करती हैं।
2. विशेष शारीरिक लक्षणों के तत्त्व – प्रजातियों का वर्गीकरण शारीरिक लक्षणों के आधार पर भी किया जाता है। प्रत्येक प्रजाति में कुछ विशेष शारीरिक लक्षण पाए जाते हैं; जैसे-शरीर का रंग, बाल, आँख, खोपड़ी, नासिका, कद, जबड़ों की बनावट आदि। वर्तमान समय में यातायात के साधनों में वृद्धि होने से शारीरिक लक्षण धीरे-धीरे समाप्त होते जा रहे हैं।
3. वंशानुक्रमण के लक्षणों के तत्व – मैंडल के सिद्धांत से यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सहवास से रक्त में उन्हीं लक्षणों का अस्तित्व होता है जो पैतृक होते हैं या वंश परंपरा से चले आ रहे होते हैं। शारीरिक लक्षण एक श्रृंखला के समान होते हैं जो वंश परंपरा के कारण अनेक पीढ़ियों तक चलते हैं, जैसे कि नीग्रो का पुत्र नीग्रो ही होता है। वह कभी भी श्वेत प्रजाति के लक्षणों से युवत नहीं होता है। प्रजाति की पवित्रता और संस्कृति की रक्षा पतृक गुणों के द्वारा ही होती है।