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ए० आर० देसाई के जीवन के बारे में आप क्या जानते हैं?

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देसाई का जन्म बड़ौदा के एक सुप्रसिद्ध परिवार में 1915 ई० में हुआ था। उन्होंने कानून की शिक्षा प्राप्त कर बंबई विश्वविद्यालय के समाजशास्त्र विभाग में प्रो० घूयें के निर्देशन में पी-एच०डी० की उपाधि प्राप्त की। वे इसी विश्वविद्यालय में समाजशास्त्र के प्राध्यापक और बाद में विभागाध्यक्ष बन गए। देसाई कुछ समय तक ‘भारतीय साम्यवादी दल के सदस्य भी रहे, किन्तु पार्टी के कुछ मुद्दों पर मतभेद हो जाने के कारण 1939 ई० में उन्होंने दल की सदस्यता से त्यागपत्र दे दिया। 1953 ई० में वे ‘ट्राटस्कीवादी क्रांतिकारी समाजवादी दल के सदस्य बन गए, किंतु उनकी समझौतेवादी प्रकृति न होने और खरी बौद्धिक ईमानदारी ने अंततः 1961 ई० में उन्हें इस संगठन को भी छोड़ने के लिए बाध्य कर दिया। फिर भी, वे आजीवन अपनी मार्क्सवादी विचारधारा के प्रति पूर्णतः प्रतिबद्ध रहे। बंबई विश्वविद्यालय से सेवानिवृत्ति के बाद उन्होंने “स्वंतत्रता के बाद भारतीय विकास की द्वंद्वात्मकता विषय पर गहन शोध कार्य किया।

देसाई ‘भारतीय समाजशास्त्रीय परिषद् के संस्थापक सदस्यों में से रहे हैं। वे इस संस्था के 1978-80 के सत्र में अध्यक्ष थे तथा 1951 ई० में यूनेस्को की एक कार्य योजना ‘भारत में समूह तनाव’ के सह-निदेशक थे। वे इसी संस्था के ‘बंबई के औद्योगिक श्रमिकों की साक्षरता और उत्पादन संबंधी कार्य-योजना के मानद निदेशक भी रहे हैं। देसाई ‘इण्डियन काउंसिल ऑफ सोशल साइंस रिसर्च के राष्ट्रीय शोधार्थी (1981-83) भी रहे हैं। देसाई की प्रथम प्रमुख कृति ‘भारतीय राष्ट्रवाद की सामाजिक पृष्ठभूमि’ (हिन्दी अनुवाद) न केवल अपने मार्क्सवाद शैक्षिक परिप्रेक्ष्य के करण एक नवीन प्रवृत्ति स्थापित करने वाला गौरव ग्रंथ (क्लासिक) रहा है, अपितु इसे भारत में समाजशास्त्र का इतिहास के साथ समागम करने वाली एक उत्कृष्ट प्रथम कृति कहा जा सकता है।

देसाई ने इस ग्रंथ के बाद कई भिन्न विषयों; जैसे भारतीय राज्य, कृषक समाज व्यवस्था, प्रजातंत्रात्मक अधिकार, नगरीकरण, कृषक आंदोलन आदि पर लिखा है। उनकी भारत में ग्रामीण समाजशास्त्र नामक संपादित पुस्तके अपने विषय की एक प्रामाणिक पाठ्य-पुस्तक मानी जाती रही है जिसके अब तक कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं। उन्होंने इसमें भारतीय कृषक व्यवस्था के सामंती चरित्र को उजागर किया है। 1994 ई० में ए०आर० देसाई स्वर्ग सिधार गए।

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