व्याख्या – कबीर कहते हैं। हे संतो ! हमारे अंतर्मन में ज्ञान की आँधी आई हुई है। इस आँधी ने हमारे मन की भ्रमरूपी टटिया को उड़ा दिया है। माया बंधन भी उसे रोक नहीं पा रहे हैं। भाव यह है कि ज्ञानोदय होने पर हमारे मन का भ्रम और माया का प्रभाव समाप्त हो गया है। हमारे मनरूपी घर पर तृष्णारूपी छप्पर पड़ा था और द्विविधा या अनिश्चयरूपी दो खम्भे इसे साधे हुए थे। ज्ञान की प्रबल आँधी ने इनको गिरा दिया है। इससे इन खम्भों पर टिकी हुई मोहरूपी बल्ली भी टूट गई है। भाव यह है कि ज्ञानोदय होने से हमारे मन की द्विविधा और मोह भी नष्ट हो गया।
यह बल्ली के टूटते ही तृष्णारूपी छप्पर (छान) भी गिर पड़ी और वहाँ स्थित कुबुद्धि रूपी सारे बर्तन, भाँड़े फूट गए अर्थात् सारे कुविचार नष्ट हो गए। हे संतो ! अबकी बार हमने घर पर संतोषरूपी नया छप्पर बड़े यत्न से ढका और बाँधा है। अब हम पूर्णत: निश्चिन्त हैं, क्योंकि अब इसमें से एक बूंद भी वर्षा का पानी नहीं टपक सकता अर्थात् सांसारिक विषय विकार अब हमारे हृदय को लेश मात्र भी प्रभावित नहीं कर सकते। मन में ज्ञान के आगमन से मुझे हरि’ के स्वरूप का ज्ञान हो गया है और मन . का सारा कूड़ा-करकट (दुर्गुण) साफ हो गया है। ज्ञानोदय के पश्चात् मेरा भक्त हृदय प्रभु प्रेम की वर्षा में भीग ग.. है। ज्ञानरूपी सूर्य के उदय से अज्ञानरूपी अंधकार पूर्णतः नष्ट हो चुका है।