संवेग के सिद्धान्त(Theories of Emotion)
यह एक सर्वमान्य तथ्य है कि संवेगावस्था में शारीरिक एवं मानसिक परिवर्तन होते हैं। दूसरे शब्दों में, संवेगों का बाह्य तथा आन्तरिक शारीरिक परिवर्तनों के साथ गहरा सम्बन्ध है। प्रश्न यह उठता है कि संवेगावस्था में होने वाले इन परिवर्तनों का आधार क्या है ? संवेग की दशा में पहले शारीरिक परिवर्तन आते हैं यो मानसिक परिवर्तन ? इन आधारों को समझने के लिए मनोवैज्ञानिकों द्वारा अध्ययन किये गये हैं जिनके परिणामस्वरूप इस सम्बन्ध में समय-समय पर अनेक सिद्धान्तों का प्रतिपादन हुआ है। विभिन्न विद्वानों द्वारा प्रस्तुत सिद्धान्तों में से प्रमुख सिद्धान्त ये हैं –
⦁ जेम्स-लाँज का सिद्धान्त;
⦁ कैनन-बार्ड का सिद्धान्त;
⦁ लीपर का प्रेरणात्मक सिद्धान्त;
⦁ सक्रियकरण सिद्धान्त।
जेम्स-लॉज का सिद्धान्त(James-Lange Theory)
संवेग सम्बन्धी ‘जेम्स-लॉज का सिद्धान्त’ दो मनोवैज्ञानिकों के पृथक् एवं स्वतन्त्र प्रयासों का परिणाम है। अमेरिका के प्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक विलियम जेम्स तथा डेनमार्क के दैहिक मनोवैज्ञानिक लाँज ने स्वतन्त्र रूप से अलग-अलग कार्य करते हुए सन् 1884-85 में अपने-अपने संवेग विषयक सिद्धान्त प्रस्तुत किए। संयोगवश दोनों विद्वानों ने लगभग एक जैसे ही विचारों का प्रतिपादन किया था। इसी कारण इनके द्वारा प्रस्तुत किए गए निष्कर्षों को संयुक्त रूप से जेम्स-लॉज सिद्धान्त का नाम दिया गया।
सिद्धान्त की व्याख्या – संवेगों के सम्बन्ध में एक सामान्य सिद्धान्त या विचारधारा प्रचलित है। जिसके अनुसार सर्वप्रथम संवेगात्मक अनुभूति होती है और इसके बाद संवेगात्मक व्यवहार होता है। इसका अभिप्राय यह है कि किसी उत्तेजना के सम्पर्क में आने वाला व्यक्ति पहले किसी परिस्थिति का प्रत्यक्षीकरण करता है, तब उसके अन्दर मानसिक परिवर्तन होते हैं जो शारीरिक परिवर्तनों को जन्म देते हैं और इस प्रकार वह कोई कार्य (व्यवहार) करता है। उदाहरण के लिए–बहुत दिनों के बाद एक माँ अपने बेटे को देखती है जिससे उसके अन्दर मानसिक परिवर्तन आते हैं और वात्सल्य का संवेग जन्म लेता है। यह वात्सल्य को संवेग प्यार, दुलार और आलिंगन जैसी शारीरिक क्रियाओं द्वारा व्यक्त होता है। सामान्य सिद्धान्त को निम्न प्रकार से भली प्रकार समझा जा सकता है –
व्यक्ति को उत्तेजना से सम्पर्क → परिस्थिति का प्रत्यक्षीकरण →
मानसिक परिवर्तन (संवेगात्मक अनुभूति) → शारीरिक परिवर्तन एवं क्रियाएँ
किन्तु जेम्स और लॉज उपर्युक्त प्रचलित विचारधारा के विपरीत अपनी अवधारणा प्रस्तुत करते हैं जिसके अनुसार व्यक्ति के विशिष्ट संवेगात्मक व्यवहार (अथवा शारीरिक परिवर्तनों) के फलस्वरूप ही अभीष्ट संवेगों की अनुभूति होती है। विलियम जेम्स ने अपने विचारों को इस प्रकार प्रकट किया है, मेरा सिद्धान्त है कि शारीरिक परिवर्तन उद्दीपक के प्रत्यक्षीकरण के तुरन्त बाद होता है और जैसे ही वे संवेग में होते हैं उनके प्रति हमारी अनुभूति बदल जाती है।’ संवेगात्मक व्यवहार के विषय में उनका स्पष्टीकरण इस प्रकार है, “हमें दुःख होता है क्योंकि हम रोते हैं, क्रोध उत्पन्न होता है क्योंकि हम मारते हैं, भय लगता है क्योंकि हमें काँपते हैं, हम इसलिए नहीं रोते, मारते या काँपते क्योंकि हमें दु:ख होता है, क्रोध उत्पन्न होता है या भय लगता है।” जेम्स के ही समान लाँज ने भी संवेगों की उत्पत्ति के लिए शारीरिक क्रियाओं को जिम्मेदार माना। लॉज के शब्दों में, “हमारे हर्षों और विषादों के लिए, हमारे आनन्दों और व्यथाओं के लिए, हमारे मानसिक जीवन के सम्पूर्ण संवेदनात्मक पहलू के लिए वाहिनी पेशी संस्थान उत्तरदायी है।”
जेम्स-लाँज सिंद्धान्त का सार-संक्षेप यह है कि उद्दीपने के उपस्थित होने पर व्यक्ति में क्रियाओं का प्रारम्भ होता है और उसके शरीर में कुछ परिवर्तन दृष्टिगोचर होते हैं। इन क्रियाओं और परिवर्तनों का ज्ञान व्यक्ति के अन्दर संवेग पैदा करता है जिसकी उसे अनुभूति होती है। इसे निम्न प्रकार से भली प्रकारे समझ सकते हैं।
परिस्थिति को प्रत्यक्षीकरण शारीरिक परिवर्तन एवं क्रियाएँ →
मानसिक परिवर्तन (संवेगात्मक अनुभूति)
जेम्स-लॉज सिद्धान्त के पक्ष में तर्क या प्रमाण
जेम्स-लाँज ने अपने संवेग सम्बन्धी सिद्धान्त को प्रामाणिक सिद्ध करने के लिए निम्नलिखित तर्क या प्रमाण प्रस्तुत किये हैं –
(1) संवेग जाग्रत होने से पूर्व शारीरिक परिवर्तनों की उत्पत्ति – यदि कोई उद्दीपक अचानक ही उपस्थित हो जाए तो संवेग जाग्रत होने से पूर्व ही कुछ शारीरिक परिवर्तन उत्पन्न हो जाते हैं। इस बारे में जेम्स का मत है कि अगर कोई व्यक्ति अन्धकार में किसी काली चीज को अचानक देख ले तो किसी संवेग के जगने से पहले ही उसके हृदय की धड़कनें बढ़ जाती हैं, मुँह सूख जाता है और वह हाँफने लगता है। इसके अलावा किसी भयंकर ध्वनि या धमाके को सुनकर भी व्यक्ति बिना किसी संवेग के चौंक उठती है। इसके बाद जब वह उस ध्वनि या धमाके का अभिप्राय समझता है तो उसमें भय अथवा आश्चर्य उत्पन्न होता है।
(2) शारीरिक अभिव्यक्ति का संवेग से घनिष्ठ सम्बन्ध – शरीर के अंगों की अभिव्यक्ति को संवेग से अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध होना जेम्स-लाँज सिद्धान्त’ के पक्ष में एक महत्त्वपूर्ण तर्क है। ऐसे संवेग की कल्पना करना दुष्कर है जिसमें शारीरिक अंगों की अभिव्यक्ति न होती हो। संवेग की अनुभूति के लिए तद्नुरूप शारीरिक आसन (Bodily Posture) का होना बहुत जरूरी है।
(3) शारीरिक अभिव्यक्ति के विरोधस्वरूप संवेग का भी विरोध – यदि शारीरिक अंगों की अभिव्यक्ति का विरोध किया जाए तो इसके फलस्वरूप तत्सम्बन्धी संवेग को भी विरोध हो सकता है। यदि कोई उद्दीपक सम्मुख आ जाए और उसके प्रति की जाने वाली स्वाभाविक क्रियाओं को हम रोक लें तो संवेग जाग्रत नहीं होगा। जेम्स के अनुसार, यदि किसी की मृत्यु पर कोई रुदन-क्रन्दन न केरे अथवा ऐसी ही कोई शारीरिक क्रिया प्रदर्शित न करे तो दुःख का संवेग नहीं माना जायेगा।
(4) कृत्रिम अभिव्यक्तियों के माध्यम से संवेग की जाग्रति – कृत्रिम अर्थात् बनावटी ढंग से शारीरिक अंगों की अभिव्यक्तिंयाँ प्रदर्शित करने से संवेग जाग्रत हो जाते हैं। इसे जेम्स ने फिल्म और नाटक के अभिनेताओं और अभिनेत्रियों का उदाहरण प्रस्तुत कर समझाया है। ये कलाकार फिल्म और नाटक में अभिनय के दौरान कृत्रिम व्यवहार अथवा क्रियाओं तथा हाव-भावों का प्रदर्शन कर संवेगाभिव्यक्ति करते हैं। यह बनावटी व्यवहार या क्रियाएँ उनमें तत्सम्बन्धी संवेग को जाग्रत कर देते हैं। जिससे उनका अभिनय जीवन्त एवं सफल हो जाता है।
(5) शराब अथवा नशीले पदार्थों के सेवन से संवेग की उत्पत्ति – शराब तथा अन्य नशीले पदार्थों के सेवन से भी संवेग की उत्पत्ति होती है। इसका कारण यह है कि इन उत्तेजक पदार्थों के कारण शारीरिक अवस्था कुछ इस प्रकार की हो जाती है कि वह विभिन्न संवेगों को उत्पन्न कर देती है। जेम्स स्वीकार करता है कि किसी व्यक्ति द्वारा मादक या नशीले पदार्थों का सेवन करने से, बिना किसी बाहरी उद्दीपक के, उसमें स्वत: ही खुशी, दु:ख, साहस, करुणा आदि के संवेग उत्पन्न होने लगते हैं।
(6) रोगों से संवेग की उत्पत्ति – जेम्स का मत है कि किन्हीं रोगों में बाह्य उद्दीपन के बिना ही संवेग उत्पन्न होने लगते हैं। उसके अनुसार, “यकृत के रोग अवसाद तथा चिड़चिड़ाहट उत्पन्न करते हैं, जबकि स्नायविक रोग भय एवं निराशा को जन्म देते हैं।”
स्पष्टत: उपर्युक्त वर्णित एवं जेम्स द्वारा पुष्ट किये गये तर्को तथा प्रमाणों के आधार पर ‘जेम्स-लॉज सिद्धान्त’ की यह अवधारणा सिद्ध होती है, “जब तक शारीरिक व्यवहार नहीं होगा, तब तक उससे सम्बन्धित संवैग की अनुभूति हमें नहीं होगी।”
जेम्स-लाँज सिद्धान्त के विपक्ष में तर्क या आलोचना
जेम्स-लॉज के सिद्धान्त के प्रस्तुतीकरण के उपरान्त विभिन्न मनोवैज्ञानिकों ने इस सिद्धान्त की प्रयोगात्मक परीक्षा की। सिद्धान्त की जाँच के पश्चात् बहुत-से मनोवैज्ञानिक इस विचार से सहमत नहीं थे कि शारीरिक परिवर्तनों के बाद ही संवेग की अनुभूति होती है। फलतः इस सिद्धान्त की कटु आलोचना हुई और इसके विपक्ष में निम्नलिखित तर्क या प्रमाण प्रस्तुत किये गये –
(1) शेरिंगटन (Sherington) ने एक कुत्ते पर प्रयोग करके जेम्स-लॉज के सिद्धान्त के विरुद्ध यह सिद्ध कर दिया कि शारीरिक परिवर्तनों के अभाव में भी संवेगात्मक प्रतिक्रियाएँ सम्भव हैं। शेरिंगटन द्वारा एक कुत्ते के गले की नाड़ियों को इस भॉति पृथक् कर दिया गया कि जिससे उसके आन्तरिक परिवर्तनों का सन्देश उसके मस्तिष्क को न मिले। कुत्ते के सम्मुख संवेगात्मक परिस्थितियाँ उत्पन्न करने पर पाया गया कि कुत्ते ने प्रत्येक संवेग को पूर्ण अभिव्यक्ति दी। इस प्रकार कुत्ता शारीरिक परिवर्तनों के बिना भी संवेगों का अनुभव कर रहा था। यह प्रमाण जेम्स-लाँज के सिद्धान्त का विरोध करता है।
(2) कैनन (Canon) ने बिल्लियों पर प्रयोग किये। बिल्ली के स्वतन्त्र स्नायु मण्डल की माध्यमिक या सहानुभूति स्नायुओं को शल्य क्रिया द्वारा काटकर अलग कर दिया गया। निरीक्षण के दौरान पाया गया कि संवेगावस्था में आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन तो बन्द हो गये, किन्तु बाह्य अभिव्यक्ति पहले की तरह होती रही। बिल्ली के सामने क्रोध का उद्दीपक आने पर वह गुर्रायी तथा कान को पीछे की तरफ भी खींचा। इस प्रकार क्रोध के बाह्य लक्षण अभिव्यक्त करके भी उसमें आन्तरिक शारीरिक परिवर्तन दृष्टिगोचर नहीं हुए।
(3) जेम्स-लाँज के संवेग सम्बन्धी सिद्धान्त की मान्यता है कि किसी संवेग की उत्पत्ति के लिए सम्बन्धित वस्तु का प्रत्यक्षीकरण ही काफी होता है। आलोचकों ने इस मान्यता को अस्वीकार किया है। तर्क यह है कि यदि यह मान्यता सत्य होती तो किसी एक वस्तु या घटना के प्रत्यक्षीकरण के परिणामस्वरूप प्रत्येक परिस्थिति में एक ही प्रकार की प्रतिक्रिया प्रकट की जाती, परन्तु व्यवहार में प्रायः ऐसा नहीं होता। बार्ड ने एक उदाहरण प्रस्तुत करते हुए लिखा है, “मान लीजिए, जेम्स का मुकाबला पहले तो पिंजरे में बन्द भालू• से होता है और तत्पश्चात् खुले हुए भालू से। पहली वस्तु (भालु) को वह मूंगफली देता है और दूसरी वस्तु (उसी भालू) से भागता है।” प्रस्तुत उदाहरण द्वारा स्पष्ट होता है कि किसी संवेग की उत्पत्ति के लिए अभीष्ट वस्तु के साथ ही कुछ परिस्थितियों को भी ध्यान में रखना आवश्यक होता है। इस तर्क द्वारा भी जेम्स-लॉज सिद्धान्त को खण्डन किया गया है।
(4) डॉ० डाना (Dr. Dana) ने एक चालीस वर्षीय महिला के सम्बन्ध में भी, जो घोड़ेसे गिर गयी थी, यही कुछ पाया। महिला की गर्दन में चोट आ जाने के कारण उसका सहानुभूतिक नाड़ीमण्डल संवेदना प्राप्त नहीं कर पाता था, किन्तु वह संवेगों की अनुभूति कर उन्हें भली-भांति प्रकट कर सकती थी। इससे पता चला कि संवेगात्मक अनुभूति के लिए अन्तरावयव संवेदनाएँ तथा शारीरिक परिवर्तन आवश्यक नहीं हैं।
(5) आर्चर (Archer) नामक मनोवैज्ञानिक ने जब फिल्म और नाटक से जुड़े अभिनेताओं के सम्बन्ध में जाँच की तो इसके परिणाम जेम्स की अवधारणा के विपरीत हासिल हुए। बहुत से कलाकारों ने व्यक्त किया कि शारीरिक अंगों की अभिव्यक्ति के समय उन्हें किसी प्रकार की संवेगात्मक अनुभूति नहीं हुई।
(6) जेम्स-लाँज सिद्धान्त की मान्यता है कि शराब या मादक पदार्थों के सेवन से संवेग की उत्पत्ति होती है। अनेक व्यक्तियों को मादक तथा उत्तेजक पदार्थों का सेवन कराया गया, फिर भी उन्हें किसी प्रकार की संवेगात्मक अनुभूति नहीं हुई। इससे जेम्स-लाँज सिद्धान्त का खण्डन होता है।
(7) आन्तरिक परिवर्तन तथा जाठरिक उपद्रवों के सन्दर्भ में संवेगावस्था की जाँच करने के लिए मैरेनन केन्ड्रिल, हन्ट तथा कैनन ने प्रयोग किये, जिनसे सिद्ध हुआ कि आन्तरिक परिवर्तन तथा जठरिक उपद्रवों के होने पर भी संवेग का उठना आवश्यक नहीं है।
(8) शारीरिक अभिव्यक्तियों के आधार पर संवेग प्रकट नहीं होते। प्रायः देखा गया है कि विशिष्ट संवेग विशिष्ट प्रकार की शारीरिक अभिव्यक्तियों से सम्बन्ध नहीं रखते, बल्कि कई संवेगों के साथ ही एक ही प्रकार की शारीरिक अभिव्यक्ति होती है। दुःख और अत्यधिक हर्ष एकदम विपरीत संवेग हैं, किन्तु इनकी शारीरिक अभिव्यक्ति एकसमान है-दोनों में आँसू निकल पड़ते हैं।
(9) अन्तिम रूप से, यौन ग्रन्थियों के न रहने पर भी लोगों में यौन सम्बन्धी संवेग जाग्रत होते हुए देखा गया है-यह भी सिद्धान्त के विपरीत तथ्य है।
जेम्स-लाँज का सिद्धान्त मनोवैज्ञानिकों की कटु आलोचनाओं की परिधि में रहा और पूर्णत: मान्य न हो सका। स्वयं जेम्स को इन आलोचनाओं में वर्णित तथ्यों पर ध्यान देना पड़ा और उसने आगे चलकर अपनी विचारधारा में कुछ संशोधन भी किये जिसके परिणामस्वरूप सिद्धान्त का संशोधित रूप सामान्य विचारधारा के सदृश ही हो गया। फिर भी शारीरिक परिवर्तन तथा आंगिक क्रियाओं को महत्त्व प्रदान करने वाले इस सिद्धान्त का संवेग के क्षेत्र में अपूर्व योगदान रहा है।