शिक्षा की उपयोगिता (Utility of Education)
आधुनिक मानव के सभ्य तथा सुसंस्कृत जीवन का रहस्य शिक्षा में निहित है। शिक्षा के माध्यम से आदिमानव के आचार-विचार, रहन-सहन तथा दृष्टिकोण में उत्तरोत्तर परिवर्तन आया और उसे पृथ्वी का श्रेष्ठ एवं विवेकशील प्राणी समझा गया। जहाँ एक ओर जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में मानव की उपलब्धियाँ शिक्षा की उपयोगिता को सिद्ध करती हैं, वहीं दूसरी और शिक्षा की उपयोगिता के विषय में सभी विद्वान् एकमत हैं। संक्षेप में, शिक्षा की निम्नलिखित उपयोगिताएँ हैं।
1. अन्तःशक्तियों का विकास- शिक्षा बालक की अन्त:शक्तियों को विकसित करने की उत्तम प्रक्रिया है। शिक्षा के अभाव में उसकी ये शक्तियाँ अविकसित रह जाती हैं। शिक्षा बालक के व्यवहार का परिमार्जन की जन्मजात व स्वाभाविक क्षमताओं एवं योग्यताओं का सम्यक् तथा ) मानवीय गुणों का अभिप्रकाशन समान रूप से इस भाँति विकास करती है कि वह उनका अपने परिवार, जाति, समाज और राष्ट्र के हित में ठीक प्रकार से उपयोग कर सके।
2. व्यवहार का परिमार्जन- शिक्षा बालक के व्यवहार को समाज की परिस्थितियों के अनुकूल बनाती है। इसके लिए बालक के व्यवहार में परिवर्तन तथा परिमार्जन की आवश्यकता महसूस की जाती है। बालक को सामाजिक व्यवहार के सभी अंगों का ज्ञान भी होना चाहिए। सामाजिक व्यवहार के योग्य बनाने की दृष्टि से उसकी रुचियों, आदतों व आदर्शों आदि में वांछित संशोधन का कार्य भी शिक्षा ही करती है। स्पष्टतः व्यवहार-परिमार्जन हेतु शिक्षा अत्यन्त उपयोगी है।
3. मानवीय गुणों का अभिप्रकाशन-मानवीय गुणों से युक्त व्यक्ति ही सही अर्थों में मानव कहलाने का अधिकारी है। शिक्षा के माध्यम से मनुष्य काम, क्रोध, लोभ, मोह, घृणा तथा स्वार्थपरता जैसी समाज विरोधी भावनाओं को नियन्त्रित करता है और प्रेम, धैर्य, उदारता, भ्रातृत्व-भाव, सेवा, आत्मविश्वास तथा सामाजिक कल्याण जैसे सद्गुणों का विकास करता है। शिक्षा मानवीय गुणों के अभिप्रकाशन का सर्वोत्तम साधन है।।
4. नैतिक चरित्र का निर्माण-आज समूची दुनिया में नैतिक मूल्यों का ह्रास दिखाई पड़ता है और नैतिकता का प्रायः अभाव हो गया है। चारों तरफ छल-छद्म, फरेब, धोखा, हिंसा, उत्पीड़न तथा शोषण का बोलबाला है। मनुष्य के नैतिक पतन में मानव जाति का कल्याण नहीं हो सकता। शिक्षा, मनुष्य और समाज की समस्त बुराइयों को दूर कर उनमें नैतिकता का समावेश करती है। स्पष्टतः नैतिक चरित्र के निर्माण की दृष्टि से शिक्षा अत्यधिक उपयोगी है।
5. बालक का समाजीकरण-बालक के समाजीकरण की प्रक्रिया में शिक्षा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। सर्वप्रथम बालक माता-पिता के संरक्षण में, बाद में संगी-साथियों तथा शिक्षालयों के सम्पर्क में आकर अपने व्यक्तित्व का विकास करता है। शिक्षक समाज अपने विश्वास, दृष्टिकोण, मान्यताएँ, कुशलता तथा रीति-रिवाजों को बालक को प्रदान करता है। शिक्षालय तथा अनेक शिक्षा संस्थाएँ बालक को सामाजिक नियन्त्रण को स्वीकार करने में सहयोग देती हैं, जिससे बालक के समाजीकरण में सहायता मिलती है।
6. अधिकार तथा कर्तव्य का ज्ञान शिक्षा बालक को श्रेष्ठ नागरिक का जीवन जीने के लिए तैयार करती है। शिक्षित व्यक्ति अपने अधिकारों तथा कर्तव्यों से परिचित होता है और उनके उचित पालन द्वारा योग्य नागरिक बनता है। शिक्षा किसी समाज या राष्ट्र के निवासियों में नागरिक व सामाजिक कर्तव्यों की भावना का समावेश कर उसकी प्रगति में सहायक सिद्ध होती है।
7. भावी जीवन की तैयारी शिक्षा बालक को भावी जीवन के लिए तैयार करती है। मनुष्य का जीवन संघर्षपूर्ण है। माँ के आँचल से धरा की गोद तक मनुष्य को जीवन में अनेक कठिनाइयों तथा विषम परिस्थितियों का सामना करना पड़ता है। शिक्षा बालक को नियोजित एवं व्यवस्थित तरीके से धैर्य तथा साहस के साथ जीवन-संग्राम के लिए प्रेरित करती है।
8. संस्कृति का हस्तान्तरण—शिक्षालय समाज में सांस्कृतिक केन्द्र’ कहे जाते हैं। शिक्षा के माध्यम से व्यक्ति अपने पूर्वजों द्वारा अर्जित एवं संचित सांस्कृतिक विरासत को अपनी भावी सन्तति को हस्तान्तरित करता है। संस्कृति के हस्तान्तरण से समाज के लोगों का आचरण प्रभावित होता है और जनजीवन सुखी, प्रगतिशील और सुसंस्कृत बनता है।