मानव-जीवन में चरित्र का महत्त्व
(Importance of Character in Human Life)
एक प्राचीन प्रचलित कहावत् है, ‘यदि धन नष्ट हो गया तो कुछ नष्ट नहीं हुआ, यदि स्वास्थ्य नष्ट हो गया तो कुछ नष्ट हो गया, किन्तु यदि चरित्र नष्ट हो गया तो सभी कुछ नष्ट हो गया।’ (If wealth is lost nothing is lost. If health is lost something is lost. If character is lost everything is lost.) अभिप्राय यह है कि चरित्र व्यक्ति की सर्वाधिक मूल्यवान् वस्तु है। आज व्यक्तिगत, सामूहिक तथा राष्ट्रीय स्तर पर मानवीय मूल्यों का तेजी से पतन हो रहा है, जिससे समाज में दु:ख, तनाव तथा कष्ट बढ़ रहे हैं। इसका एक महत्त्वपूर्ण कारण यह है कि चरित्र एवं नैतिक मूल्यों की वृद्धि में आधुनिक शिक्षा प्रणाली का योगदान नगण्य है।
डॉ० राधाकृष्णन का कहना है, “भारत सहित सारे संसार के कष्टों का कारण यह है कि शिक्षा का सम्बन्ध नैतिक तथा आध्यात्मिक मूल्यों की प्राप्ति से न रहकर, केवल मस्तिष्क के विकास से रह गया है। वास्तव में राष्ट्र का निर्माण पत्थर की निर्जीव मूर्तियों से नहीं, बल्कि उसके नागरिकों के दृढ़ चरित्र से होता है। चरित्रहीन एवं अनैतिक लोगों की भीड़ आदर्श समाज का निर्माण नहीं कर सकती। वास्तव में, शिक्षा का उद्देश्य शारीरिक व बौद्धिक शक्तियों का विकास ही नहीं है, वरन् उत्तम चरित्र तथा आध्यात्मिकता में प्रतिष्ठित नैतिकता का सृजन करना है। अतः बालकों में समुचित नैतिक आदर्शों का विकास करने की दृष्टि से चरित्र-प्रधान शिक्षा की व्यवस्था की जानी चाहिए।
शिक्षा का चरित्र-निर्माण का उद्देश्य
(Character-Formation-An Aim of Education)
अनेक शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य बालक के चरित्र का निर्माण बताया है। इस मान्यता के अनुसार बालकों को ऐसी शिक्षा दी जानी चाहिए जो उनके चरित्र को सुदृढ़ तथा पवित्र बनाने में सहायक हो और इस भाँति उनका आचरण श्रेष्ठ बन सके। शिक्षा में चरित्र-निर्माण के उद्देश्य का विवेचन निम्नलिखित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया जा सकता है
1. चरित्र की महत्ता एवं अपरिहार्यता- विश्वभर में प्राचीनकाल से आज तक मानव व्यक्तित्व के विविध पक्षों के अन्तर्गत चरित्र की प्रतिष्ठा एवं महत्ता सर्वोपरि तथा अक्षुण्ण है। भारतीय धर्मशास्त्रों में कहा गया है—’वृत्तं यत्नेन संरक्षेत वित्तमेति च यातिच’ अर्थात् चरित्र की रक्षा यत्नपूर्वक की जानी चाहिए। धन तो आता है और चला जाता है, किन्तु उत्तम चरित्र मनुष्य का जीवन भर साथ देता है। पाश्चात्य विद्वान् वूल्जे ने कहा है-“संसार में न तो धन का प्रभुत्व है और न बुद्धि का, प्रभुत्व होता है चरित्र और बुद्धि के साथ-साथ उच्च पवित्रता का प्रसिद्ध विचारक बारतोल की दृष्टि में, “सभी धर्म परस्पर भिन्न हैं, क्योंकि उनका निर्माता मनुष्य है; किन्तु चरित्र की महत्ता सर्वत्र एकसमान है, क्योंकि चरित्र ईश्वर बनाता है। वस्तुत: चरित्र उन प्रधान सद्गुणों में से है जिनकी वजह से मानव पशु से श्रेष्ठ समझा जाता है। चरित्रहीन मानव-जीवन पशु से भी अधम जीवन है। अतः मनुष्य के जीवन में चरित्र न केवल महत्त्वपूर्ण, बल्कि अपरिहार्य है।
2. चरित्र क्या है?- चरित्र की महत्ता एवं अपरिहार्यता निश्चय ही यह जिज्ञासा उत्पन्न करती है कि . ‘चरित्र’ क्या है ? बारतोल ने चरित्र की तुलना उस हीरे से की है जो सभी पत्थरों में अधिक मूल्यवान है, किन्तु चरित्र का प्रत्यक्ष सम्बन्ध क्योंकि मानव से है और मानव एक गतिशील, विवेकशील तथा सामाजिक प्राणी है; अत: यहाँ हम चरित्र के दार्शनिक एवं शैक्षिक पक्ष से सम्बन्धित हैं।
कुछ शिक्षाशास्त्री चरित्र का अर्थ आन्तरिक दृढ़ता और व्यक्तित्व की एकता से लगाते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि चरित्रवान् मनुष्य किसी बाहरी दबाव से भयभीत हुए बिना अपने सिद्धान्तों तथा आदर्शों के अनुरूप कार्य करता है, लेकिन उसके सिद्धान्त नैतिक और अनैतिक दोनों ही हो सकते हैं। अत: मात्र चरित्र ही पर्याप्त नहीं है, चरित्र को अनिवार्य रूप से नैतिक होना चाहिए। इस सन्दर्भ में हैण्डरसन लिखते हैं, “इसकी अर्थ यह है कि मनुष्यों को उन सिद्धान्तों के अनुसार काम करना सीखना चाहिए, जिनसे उनमें सर्वोत्तम व्यक्तित्व का विकास हो।” कुछ दार्शनिकों के अनुसार, चरित्र के दो मुख्य आधार-स्तम्भ हैं—नैतिकता एवं आध्यात्मिकता। नैतिक गुणों के अन्तर्गत सत्य, न्याय, ईमानदारी, दया, करुणा, सहानुभूति तथा प्रेम-भावना आदि आते हैं, जिनके समुचित विकास से व्यक्ति श्रेष्ठ एवं नैतिक आचरण करता हुआ सच्चरित्र बनता है। स्पष्टतः चरित्र-निर्माण के उद्देश्य में उत्तम नैतिकता का विकास भी समाहित है। इन समस्त गुणों को, सहज एवं स्वाभाविक रूप से, शैक्षिक प्रक्रिया के माध्यम से उपलब्ध किया जा सकता है।
3. नैतिक चरित्र- निर्माण में शिक्षा की उपयोगिता : सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक दृष्टि-नैतिक चरित्र’ मानव का वास्तविक आभूषण है और शिक्षा समाज के लिए सभ्य एवं सुसंस्कृत नागरिक बनाने की एक महत्त्वपूर्ण प्रक्रिया है। अत: शिक्षा की प्रक्रिया में व्यक्ति के नैतिक चरित्र-निर्माण का उद्देश्य सहज रूप से समाविष्ट है। शिक्षा के माध्यम से नैतिक एवं चरित्रवान् व्यक्तियों का निर्माण कैसे हो ? यहाँ हम इस विचार-बिन्दु के सैद्धान्तिक तथा व्यावहारिक पक्ष का संक्षिप्त उल्लेख करेंगे
(i) वैदिक शिक्षा और चरित्र-निर्माण-वैदिक काल में शिक्षा का प्रधान उद्देश्य शिक्षार्थियों का चरित्र-निर्माण करना था। मनुस्मृति में सच्चरित्र व्यक्ति को विद्वान् से ऊँचा माना गया है-“उस वेदों के विद्वान् से जिसका जीवन पवित्र नहीं है, वह व्यक्ति कहीं अच्छा है जो सच्चरित्र है, किन्तु वेदों का कम ज्ञान रखता है।”
(ii) गुरुकुलों में चरित्र-निर्माण–प्राचीन समय में गुरुकुलों में चरित्र-निर्माण हेतु छात्रों में नैतिक प्रवृत्तियों का विकास, सदाचार का उपदेश, सद्पुरुषों के महान् आदर्शों का प्रस्तुतीकरण, आत्मसंयम व आत्मनियन्त्रण पर बल, शिक्षालयों का सरल एवं पवित्र वातावरण और कठोर अनुशासन में बँधी दिनचर्या का अभ्यास आदि के माध्यम से 25 वर्ष की अवस्था तक ब्रह्मचर्य व्रत का पालन कराया जाता था।
(iii) भारतीय एवं पाश्चात्य शिक्षाशास्त्रियों का मत- आधुनिक भारत के यशस्वी विचारक स्वामी विवेकानन्द ने उत्तम चरित्र को शिक्षा का मुख्य मानदण्ड मानते हुए कहा है-“यदि आपने स्वच्छ विचारों को ग्रहण कर लिया है, उन्हें अपने जीवन और चरित्र का आधार बना लिया है तो आपने उस व्यक्ति से अधिक शिक्षा ग्रहण कर ली है जिसने सम्पूर्ण पुस्तकालय को कण्ठाग्र कर लिया है। पाश्चात्य जगत् के महान् विचारकों तथा दार्शनिकों ने भी बालक में सच्चरित्रता के विकास को सर्वोच्च महत्ता प्रदान की है। अरस्तू ने शिक्षा का उद्देश्य चरित्र-निर्माण बताया था। जॉन डीवी के अनुसार, “समस्त शिक्षा मानसिक और नैतिक चरित्र से सम्बन्धित है।’
(iv) विचारों का परिष्कार- व्यावहारिक दृष्टि से व्यक्ति का आचरण उसकी रुचियों द्वारा निर्धारित होता है और रुचियों का आधार व्यक्ति के अपने विचार होते हैं। बालक का सदाचरणं उसके विचारों की शुद्धता में निहित है। उत्तम चरित्र एवं आचरण का निर्माण विचारों में परिष्कार (सुधार) द्वारा सम्भव है, जिसके लिए अभीष्ट शिक्षा-प्रणाली की आवश्यकता है।
(v) पाठ्यक्रम द्वारा सदाचार की शिक्षा- विचारों में परिष्कार या सुधार लाने के लिए आवश्यक है कि विद्यालयों के पाठ्यक्रम में अच्छे संस्कार उपजाने वाले विषयों का समावेश किया जाए। धर्मशास्त्र, नैतिक शिक्षा, साहित्य, ललित कलाएँ तथा इतिहास आदि विभिन्न विषयों का ज्ञान बालकों के चरित्र-निर्माण में अधिक सहायक हो सकता है। ऐतिहासिक तथा धार्मिक चरित्रों; यथा-शिव, कृष्ण, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, शिवाजी, राजा हरिश्चन्द्र, श्रवण तथा सुभाषचन्द्र बोस का आदर्श प्रस्तुत कर बालक-बालिकाओं को सदाचारी बनने की प्रेरणा दी जा सकती है।
(vi) शिक्षक का आदर्श चरित्र-शिक्षक का व्यक्तित्व एवं चरित्र शिक्षार्थियों के लिए सबसे अधिक अनुकरणीय तथा प्रभावोत्पादक होता है। कक्षागत परिस्थितियों में शिक्षक-छात्र की अन्त:क्रियाएँ एक-दूसरे को अनेक प्रकार से प्रभावित करती हैं। अत: अनिवार्य रूप से शिक्षक को विषय का ज्ञाता, सरल-उदार एवं आदर्श चरित्र वाला तथा मानव-प्रेमी होना चाहिए।
शिक्षाविद् टी० रेमण्ट ने उचित ही कहा है, “अन्ततोगत्वा शिक्षा का उद्देश्य न तो शारीरिक शक्ति उत्पन्न करना है, न ज्ञान की पूर्ण प्राप्ति करना, न विचारधारा का शुद्धीकरण, बल्कि उसका उद्देश्य चरित्र को शक्तिशाली एवं उज्ज्वल बनाना है।”
शिक्षा के चरित्र-निर्माण के उद्देश्य की समीक्षा
(Evaluation of the Aim of Character-Formation by Education)
विभिन्न विद्वानों ने शिक्षा के चरित्र-निर्माण के उद्देश्य के पक्ष एवं विपक्ष में निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए विश्व के प्राय: सभी दार्शनिकों, विचारकों तथा शिक्षाशास्त्रियों ने शिक्षा-व्यवस्था के अन्तर्गत चरित्र-निर्माण तथा नैतिक विकास के उद्देश्य को एकमत से स्वीकार किया है। जहाँ एक ओर चरित्र-निर्माण के उद्देश्य के समर्थकों ने इसकी महत्ता तथा उपयोगिता की ओर समाज का ध्यान आकर्षित किया है, वहीं दूसरी ओर इसके आलोचकों ने इसे अपूर्ण, अव्यावहारिक, विवादास्पद, एकांगी तथा अमनोवैज्ञानिक सिद्ध किया है। यह सच है कि मात्र चरित्र-निर्माण की शिक्षा के बल पर ही मानवता का हित नहीं किया जा सकता। व्यक्ति एवं समाज के हित में चरित्र-निर्माण शिक्षा का एक अनुपम आदर्श अवश्य है, किन्तु शिक्षा का परम उद्देश्य नहीं है।