शिक्षा के सांस्कृतिक विकास के उद्देश्य के विपक्ष में प्रस्तुत किए गए तर्क
(Arguments Against ‘Cultural Development Aims’ of Education)
इसके विपक्ष में मुख्य रूप से निम्नलिखित तर्क प्रस्तुत किए गए हैं—
⦁ भ्रामक एवं अक्षम उद्देश्य-संस्कृति’ शब्द आज भी इतना अस्पष्ट, भ्रामक तथा जटिल है कि इसके उपादानों के बारे में कोई सुनिश्चित विचार प्रकट करना प्रायः असम्भव है। उधर समाज में सबसे अधिक सांस्कृतिक रूप से विकसित लोग भी चिन्ताओं, तनावों तथा सन्देहों के शिकार हैं। सच तो यह है कि संस्कृति मानव-मात्र को जीवन के चरम आदर्श एवं मूल्यों को उपलब्ध कराने में पूरी तरह असक्षम रही है। अतः सांस्कृतिक विकास को शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य नहीं बनाया जा सकता।
⦁ अमनोवैज्ञानिक-सांस्कृतिक उद्देश्य से प्रेरित शिक्षा- प्रणाली बालक की रुचियों, अभिरुचियों, आदतों तथा भावनाओं का दमन करके उसे केवल सांस्कृतिक प्रतिमानों के अनुसार कार्य करने के लिए। विवश करती है। यह उद्देश्य बालक के स्वतन्त्र विकास में बाधक है और पूर्णत: अमनोवैज्ञानिक है। टी० पी० नन कहते हैं, “राष्ट्रीय रीति-रिवाजों का स्थायीपन वैयक्तिक जीवन को एक तुच्छ वस्तु बना देता है।”
⦁ रचनात्मक शक्तियाँ कुण्ठित- बालक की रचनात्मक शक्तियाँ ही उसकी उन्नति की वास्तविक आधारशिला हैं। शिक्षा का सांस्कृतिक पक्ष अपने पुरातन एकरूप तथा स्थायी स्वरूप के कारण शिक्षार्थी की रचनात्मक प्रवृत्तियों को कुण्ठित कर देता है। इसके परिणामस्वरूप बालक अपनी रचनात्मक क्षमताओं का उपयोग भविष्य के निर्माण में नहीं कर पाता।।
⦁ संकुचित दृष्टिकोण- शिक्षा का सांस्कृतिक उद्देश्य बार-बार अपने अतीत को दोहराकर कोई विस्तृत एवं सन्तुलित दृष्टिकोण प्रस्तुत नहीं करता। इसके साथ ही वर्तमान में नव-स्फूर्ति उत्पन्न करने के बजाय यह बीते समय की अरुचिकर एवं अर्थहीन बातों पर ध्यान देता है। स्पष्टतः यह एक संकुचित दृष्टिकोण है।
⦁ भावी जीवन की तैयारी नहीं- सांस्कृतिक उद्देश्य बालक को भावी जीवन के लिए तैयार करने में असमर्थ है। संगीत, साहित्य, कला, धर्म, प्रथाओं तथा रीति-रिवाजों की शिक्षा से रोटी-रोजी की समस्या हल नहीं होती। इस तरह यह आजीविका की समस्या का कोई समाधान नहीं करती। वस्तुत: शिक्षा के उद्देश्य द्वारा बालक में वे समस्त क्षमताएँ विकसित की जानी चाहिए जो उसे जीवन के संघर्षों से लोहा लेने की शक्ति तथा साहस दे सकें।