किशोरावस्था का आशय (Meaning of Adolescence)
किशोरावस्था जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण काल है। यह अवस्था 12 से 18 वर्ष तक मानी जाती है। इस अवस्था में किशोर न तो बालक होता है और न वह प्रौढ़ होता है। जरसील्ड ने किशोरावस्था की परिभाषा देते हुए लिखा है-“किशोरावस्था वह अवस्था है, जिसमें मनुष्य बाल्यावस्था से परिपक्वता की ओर अग्रसर होता है। ब्लयेर, जोन्स तथा सिम्पसन के अनुसार, “किशोरावस्था प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में वह काल है, जो बाल्यावस्था के अन्त से प्रारम्भ होता है तथा प्रौढ़ावस्था के आरम्भ में समाप्त हो जाता है।” बालक भावी जीवन में क्या बनेगा, इसका निर्णय बहुत कुछ किशोरावस्था में ही हो जाता है। इसे ऐसे भी कह सकते हैं, “किशोरावस्था में मानसिक विकास उच्चतम सीमा पर पहुँच जाता है।”
किशोरावस्था की प्रमुख विशेषताएँ (Major Characteristics of Adolescence)
किशोरावस्था में क्रान्तिकारी परिवर्तन होते हैं। अतः यह काल परिवर्तन का काल कहलाता है। बिग्स एवं हण्ट (Biggest and Hunt) के अनुसार, “किशोरावस्था की विशेषताओं को सर्वोत्तम रूप में अभिव्यक्त करने वाला एक शब्द है-परिवर्तन। यह परिवर्तन शारीरिक; मानसिक और मनोवैज्ञानिक होता है।” किशोरावस्था में होने वाले परिवर्तनों का विवरण निम्नलिखित है-
1. शारीरिक परिवर्तन- इस अवस्था में किशोरों में पर्याप्त परिपक्वता आ जाती है। यह परिपक्वता लड़कों में 16 वर्ष तथा लड़कियों में 14 वर्ष तक आ जाती है। बालक तथा बालिकाओं की ऊँचाई में भी क्रान्तिकारी परिवर्तन होते हैं। किशोरावस्था के प्रारम्भ में लड़कियों का विकास तीव्रता से होता है, परन्तु 16 वर्ष की आयु तक बालकों का कद लड़कियों की अपेक्षा अधिक हो जाता है। भार में भी पर्याप्त वृद्धि होती है। लड़कों की आवाज में भारीपन आने लगता है। उनकी दाढ़ी, मूछों, बगल तथा गुप्तांगों पर बाल चमकने लगते हैं। किशोरियों के स्तन उभरने लगते हैं तथा रजोदर्शन का आरम्भ भी इस अवस्था में हो जाता है। ये शारीरिक परिवर्तन किशोर तथा किशोरियों के मन में हलचल उत्पन्न कर देते हैं।
2. मानसिक परिवर्तन- इस अवस्था में शारीरिक परिवर्तन के साथ-साथ मानसिक परिवर्तन भी तीव्रता से होते हैं। बालक की वृद्धि, कल्पना, विचार तथा तर्क शक्तियाँ पर्याप्त विकसित हो जाती हैं। ये परिवर्तन इतनी तीव्रता से होते हैं कि बालक को ऐसा ज्ञान होने लगता है कि मानो वह उन परिस्थितियों में लाकर खड़ा कर दिया गया हो, जिनके लिए वह पहले से तैयार नहीं था।
3. आत्म-सम्मान का विकास- किशोर का मानसिक विकास पर्याप्त हो जाने से वह बालकों के मध्य अधिक रहना पसन्द नहीं करता। यदि माता-पिता अब भी उसके साथ बालक जैसा व्यवहार करते हैं तो उसे ठेस लगती है। इस अवस्था तक उसमें आत्म-सम्मान का विकास हो जाता है और वह अपने को बालक न मानकर वयस्क मानने लगता है।
4. स्थायित्व का अभाव- किशोर में स्थायित्व और समायोजन का अभाव रहता है। उसका मन शिशु के समान ही स्थिर नहीं होता। वह कभी कुछ विचार करता है, कभी कुछ। वह वातावरण में समायोजन नहीं कर पाता।
5. कल्पना की प्रधानता- इस अवस्था में किशोर में कल्पना की प्रधानता होती है। उसकी कल्पना-शक्ति का पर्याप्त विकास हो जाता है और उसका अधिकांश समय दिवा-स्वप्न देखने में ही व्यतीत होता है। किशोर तथा किशोरियाँ उपन्यास तथा कहानियों में विशेष रुचि लेते हैं। साहित्य रचना के बीज इस अवस्था में अंकुरित होते हैं। कल्पना की प्रधानता के कारण किशोरों की प्रवृत्ति अन्तर्मुखी हो जाती है।
6. रुचियों में परिवर्तन तथा स्थिरता- प्रारम्भ में किशोर और किशोरियों की रुचियों में निरन्तर परिवर्तन होते रहते हैं, परन्तु बाद में स्थिरता आ जाती है। किशोर और किशोरियों की रुचियों में समानता भी होती है और असमानता भी। उपन्यास कहानियाँ, पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ने, सिनेमा देखने फैशन आदि में किशोर और किशोरियाँ समान रुचि रखते हैं, परन्तु लड़कों को यदि शारीरिक व्यायाम, खेलकूद तथा दौड़-भाग में विशेष रुचि होती है तो लड़कियों में सीने, काढ़ने, बुनने तथा नृत्य और संगीत में विशेष रुचि होती है।
7. व्यवहार में भिन्नता- इस अवस्था में संवेगों की प्रबलता होती है। किशोर भावुकता, अस्थिरता, उत्साह तथा उदासीनता में ग्रसित होता है। वह कभी एकदम उत्साहित हो जाते हैं तो कभी निरुत्साहित। उसके संवेगात्मक व्यवहार में कुछ विरोध होता है।
8. घनिष्ठ मित्रता पर बल- वेलेण्टाइन के अनुसार, “घनिष्ठ और व्यक्तिगत मित्रता उत्तर किशोरावस्था की विशेषता है।” किशोर यद्यपि किसी समूह का सदस्य होता है, परन्तु इस पर भी वह .. किसी-न-किसी को अपना घनिष्ठ मित्र बनाता है। घनिष्ठ मित्र से अपने मन की बात कहकर वह विशेष आत्म-सन्तोष का अनुभव करता है।
9. वीर पूजा- किशोर काल में वीर पूजा की भावना प्रबल होती है। शैशवावस्था में बालक का अनुराग अपनी माता की ओर अधिक रहता है, परन्तु किशोरकाल में माता-पिता का स्थान कोई महान नेता, वैज्ञानिक या आदर्श अध्यापक ले लेता है। प्रत्येक किशोर किसी उपन्यास, नाटक या सिनेमा के नायक को अपना इष्ट मान लेता है और उसके प्रति श्रद्धा रखता है।
10.धार्मिक चेतना का विकास- वीर पूजा के समान इस अवस्था के किशोर धर्म के प्रति अपना सम्मान प्रकट करने लगते हैं। मानसिक अस्थिरता किशोरों में धर्म के प्रति श्रद्धा उत्पन्न करती है। ईश्वर के प्रति निष्ठा की भावना इस काल में ही उत्पन्न होती है।
11. तार्किक भावना का विकास- किशोर किसी भी बात को आँख बन्द करके स्वीकार नहीं करते। उनमें तर्कात्मक-शक्ति का पर्याप्त विकास हो जाता है और वे किसी भी बात को स्वीकार करने से पूर्व काफी तर्क-वितर्क करते हैं।
12. भावी व्यवसाय की चिन्ता- किशोर प्राय: भावी व्यवसाय की समस्या से चिंतित हो जाते हैं। ये विद्यार्थी जीवन में ही अपनी व्यावसायिक समस्या का निराकरण करने का प्रयास करते हैं, परन्तु उन्हें जब इस विषय में कोई मार्गदर्शन नहीं मिलता तो वे चिंतित हो जाते हैं। स्ट्रांग (Strong) के अनुसार, “जब विद्यार्थी हाईस्कूल में होता है तो वह किसी व्यवसाय का चुनाव करने, उसके लिए तैयारी करने, उसमें प्रवेश करने तथा उसमें प्रगति करने के लिए अधिक-से-अधिक चिन्तनशील होता जाता है।”
13. अपराध प्रवृत्ति का विकास- इस अवस्था में दिवास्वप्न देखने के कारण बालकों में अपराध प्रवृत्ति का विकास होता है। बर्ट (Bert) के अनुसार, “प्राय: सभी बाल-अपराधी किशोर दिवास्वप्न-दृष्टा होते हैं।” दूसरे संवेगों की अस्थिरता और बलता, निराशा और प्रेम में असफलता भी बालकों को अपराधी बना देती है। वेलेण्टाइन के अनुसार, “किशोरकाल, अपराध प्रवृत्ति में विकास का नाजुक काल है।” अधिकांश अपराधी किशोरकाल में ही अपराधों में प्रवीण हो चुके होते हैं।
14. समाज सेवा की भावना- किशोरों में सामाजिक सेवा की भावना को तीव्रता से विकास होता है। समाज में प्रतिष्ठा प्राप्त करने के लिए वे समाज सेवा में विशेष रुचि लेते हैं। रॉस (Ross) के अनुसार, किशोर, समाज-सेवा के आदर्शों को निर्मित तथा पोषित करता है। उसका उदार हृदय मानव-जाति के प्रेम से ओत-प्रोत हो जाता है तथा आदर्श समाज के निर्माण में सहायता करने की इच्छा से व्यग्र हो जाता है।”
15. मानसिक स्वतन्त्रता और विद्रोह की भावना- किशोर स्वभाव से परम्पराओं और रूढ़ियों के विरोधी तथा स्वतन्त्रता-प्रेमी होते हैं। वे प्राचीन परम्पराओं, अन्धविश्वासों तथा रूढ़ियों के बन्धन में न रहकर स्वतन्त्र जीवन व्यतीत करना पसन्द करते हैं।
16. समूह या दल को महत्त्व- किशोर की अपने समूह या दल के प्रति विशेष श्रद्धा होती है। वह अपने समूह या दल को विद्यालय तथा परिवार से भी अधिक महत्त्व देता है तथा उससे ही सबसे अधिक प्रभावित होता है। ब्रिग्स तथा हण्ट के अनुसार, “जिन समूहों से किशोर सम्बन्धित होते हैं, उनसे उनके प्राय: सभी कार्य प्रभावित होते हैं। समूह उनकी भाषा, नैतिक मूल्यों, वस्त्र धारण करने की आदतों तथा भोजन करने की प्रणालियों को प्रभावित करते हैं।”
17. काम भावना का विकास- बाल्यावस्था में समलिंगीय प्रेम की भावना प्रबल होती है। बालक बालकों के प्रति तथा बालिकाएँ-बालिकाओं के प्रति आकर्षित होती हैं। किशोरावस्था में इसके विपरीत विषमलिंगीय प्रेम की भावना प्रबल होती है। प्रत्येक लड़का किसी लड़की के सम्पर्क में आना चाहता है और इसी प्रकार लड़कियाँ भी किसी-न-किसी लड़के का सम्पर्क चाहती हैं। प्रेम भावना के साथ-साथ किशोरकाल में काम-भावना का भी विशेष वेग होता है। प्राय: लड़के-लड़कियों में परस्पर काम-सम्बन्धों की स्थापना हो जाती है।