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वायुमण्डल किसे कहते हैं? वायुमण्डल का संघटन (संरचना) समझाइए तथा इसका महत्त्व स्पष्ट कीजिए।

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वायुमण्डल का अर्थ
ट्विार्था के अनुसार, “पृथ्वी को परिवेष्टित करने वाला गैसों का एक विशाल आवरण जो पृथ्वी का अभिन्न अंग है, वायुमण्डल कहलाता है। इस प्रकार वायुमण्डल वायु का एक विशाल आवरण है जो पृथ्वी को चारों ओर से एक खोल की भाँति घेरे हुए है। यह आवरण भूतल से 1,000 किमी से भी अधिक ऊँचाई तक व्याप्त है। वायुमण्डल की उपस्थिति के कारण ही पृथ्वी ग्रह सौरमण्डल का अनूठा ग्रह है, जिस पर जीवन पाया जाता है। यह वायुमण्डल प्राणिमात्र के लिए महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि इसी के कारण पृथ्वी पर जीवन सम्भव हुआ है। वायुमण्डल में ही मौसम की परिघटनाएँ होती हैं।
                                         वायुमण्डल का संघटन या संरचना
वायुमण्डल का संघटन विभिन्न गैसों, जलवाष्प एवं धूल-कणों आदि से मिलकर हुआ है। इसमें सम्मिलित पदार्थों का विवरण निम्नलिखित है–
1. गैसें (Gases)-वायुमण्डल की संरचना में विभिन्न गैसों का योगदान रहता है। यद्यपि वायु कई गैसों का मिश्रण है, परन्तु मुख्य रूप से इसमें दो ही गैसें नाइट्रोजन 78% और ऑक्सीजन 21% मिश्रित रहती हैं जो सम्पूर्ण वायुमण्डल का 99 प्रतिशत भाग है। शेष 1 प्रतिशत में अन्य गैसे सम्मिलित हैं। संलग्न तालिका वायुमण्डल में पायी जाने वाली गैसों की मात्रा प्रकट करती है। वायुमण्डल के निचले भाग में भारी गैसें कार्बन डाइऑक्साइंड 20 किमी तक, ऑक्सीजन तथा नाइट्रोजन 100 किमी तक और हाइड्रोजन 125 किमी की ऊँचाई तक पायी जाती हैं। इनके अतिरिक्त अधिक हल्की गैसें; जैसे-हीलियम, नियॉन, क्रिप्टॉन, जेनॉन, ओजोन आदि 125 किमी से अधिक ऊँचाई पर पायी जाती हैं।
2. जलवाष्प (Water Vapour)-जलवाष्प का वायुमण्डल में महत्त्वपूर्ण स्थान होता है। इसकी अधिकतम मात्रा 5% तक होती है। जलवाष्प की यह मात्रा धरातल के विभिन्न भागों; जैसे–महासागरों, सागरों, झीलों, जलाशयों, मिट्टियों, वनस्पति आदि के वाष्पीकरण द्वारा वायुमण्डल में विलीन होती रहती है।

ऑक्सीजन वाष्पीकरण का कम या अधिक होना तापमान की कमी या वृद्धि के ऊपर निर्भर करता है। वैज्ञानिकों ने अनुमान लगाया है कि सूर्याभिताप प्रति सेकण्ड 1.6 करोड़ टन जल का वाष्पीकरण कर उसे जलवाष्प में बदल देता है। यदि वायुमण्डल में उपस्थित समस्त जलवाष्प को धरातल पर गिरा दिया जाए तो धरातलीय सतह पर 2.5 सेण्टीमीटर जल एकत्र हो जाएगा। वायुमण्डल की निचली परत में जलवाष्प की मात्रा प्रत्येक भाग में कम या अधिक अवश्य ही मिलती है। वायुमण्डल की ऊँचाई बढ़ने के साथ-साथ जलवाष्प की मात्रा घटती जाती है अर्थात् 7.5 किमी की ऊँचाई पर वायुमण्डल में जलवाष्प नहीं पायी जाती। विषुवत् रेखा से ध्रुवों की ओर जाने पर वायुमण्डल में जलवाष्प की मात्रा घटती जाती है। उदाहरण के लिए-शीतोष्ण कटिबन्धीय प्रदेशों में 50° अक्षांश पर जलवाष्प की मात्रा 2.6 प्रतिशत, 70° अक्षांश पर 0.9 प्रतिशत और इससे अधिक ऊँचाई वाले अक्षांशों पर केवल 0.2 प्रतिशत ही रह जाती है। वायुमण्डलीय घटनाएँ-बादल, वर्षा, तुषार, हिमपात, ओस, ओला, पाला आदि जलवाष्प पर ही आधारित हैं। जलवाष्प की यह मात्रा सौर्यिक विकिरण के लिए पारदर्शक शीशे की भाँति कार्य करती है।
3. धूल-कण (Dust Particles)-सूर्य के प्रकाश में देखने से मालूम होता है कि वायुमण्डल में धूल के ठोस तथा सूक्ष्म कण स्वतन्त्रतापूर्वक विचरण करते रहते हैं। ये धूल-कण भूतल से अधिक ऊँचाई पर नहीं जा पाते। भूपृष्ठ की मिट्टी के अतिरिक्त ये धूल-कण धुआँ, ज्वालामुखी की धूल तथा समुद्री लवण से भी उत्पन्न होते हैं। ये धूल-कण जलवाष्प को अपने में सोख लेते हैं। वर्षा कराने में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान होता है। वर्षा के समय इन धूल-कणों पर जमी जल की बूंदें चमकते मोती के समान दिखलाई पड़ती हैं। सूर्य की किरणों का वायुमण्डल में बिखराव इन्हीं | धूल-कणों के द्वारा होता है। इन्हीं के कारण आकाश में विभिन्न रंग दिखाई पड़ते हैं।
                                           वायुमण्डल का महत्त्व
वायु केवल मानव के लिए ही आवश्यक नहीं है, अपितु जल, थल तथा वायुमण्डलों में निवास करने वाले सभी प्राणिमात्र, जीव-जन्तु, पेड़-पौधों आदि सभी के लिए अनिवार्य है। वायु के अभाव में प्राणिमात्र एक पल भी जीवित नहीं रह सकता। वायु द्वारा ही सभी वायुमण्डलीय प्रक्रियाएँ-ताप, वायुदाब, वर्षा, तुषार, कोहरा, पाला, विद्युत चमक, ऋतु-परिवर्तन आदि निर्धारित होते हैं।

जलवायु का निर्धारण भी वायुमण्डल द्वारा ही किया जाता है। इसके अतिरिक्त कृषि-क्रियाओं पर वायुमण्डल का प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। पूर्वी एशियाई कृषि-प्रधान देशों में वायुमण्डलीय क्रियाओं से भारी धन-जन की हानि होती है। वास्तव में कृषक का भाग्य ही इस वायुमण्डल से जुड़ा हुआ है। पश्चिमी यूरोपीय देशों में फलों की कृषि वायुमण्डलीय दशाओं पर निर्भर करती है। यही नहीं, उद्योग-धन्धे भी इन्हीं क्रियाओं से ही जुड़े हुए हैं।
वायुमण्डल में पायी जाने वाली कार्बन डाइऑक्साइड तथा नाइट्रोजन का प्रभाव वनस्पति तथा जीव-जन्तुओं पर अधिक पड़ता है। पश्चिमी देशों में कृषक अपनी कृषि भूमि में नाइट्रोजन की पूर्ति अन्य विधियों से कर लेते हैं तथा अधिक उत्पादन प्राप्त करते हैं। इसके विपरीत भारतीय कृषि में कम उत्पादन का कारण नाइट्रोजन की पूर्ति न कर पाना है। कार्बन डाइऑक्साइड गैस से वनस्पति जगत की श्वसन क्रिया चलती है। यही कारण है कि विषुवतरेखीय प्रदेशों में इस गैस की अधिकता के कारण ही सघन वनस्पति का आवरण छाया हुआ है, जबकि टुण्ड्रा एवं टैगा प्रदेशों में इस गैस की कमी मिलती है; अतः ।

यहाँ वनस्पति भी विरल रूप में ही पायी जाती है। वायुमण्डल में व्याप्त अन्य गैसें-हाइड्रोजन, हीलियम, नियॉन, क्रिप्टॉन, ऑर्गन, ओजोन, जेनॉन आदि–भी प्राणिमात्र के लिए किसी-न-किसी रूप में लाभ पहुँचाती हैं। उदाहरण के लिए वायुमण्डल की ओजोन गैस का आवरण सूर्य की तीक्ष्ण पराबैंगनी किरणों को अपने में सोख लेता है। यदि यह गैस न होती तो पृथ्वी पर जीव-जगत न होता अर्थात् प्राणिमात्र तीक्ष्ण गर्मी से झुलस जाता और धरा जीवनशून्य हो जाती।

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