आचार्य रामचन्द्र शुक्ल हिन्दी साहित्याकाश के ऐसे देदीप्यमान नक्षत्र हैं जो पाठक को अज्ञान रूपी अन्धकार से दूर हटाकर ज्ञान के ऐसे आलोक में ले जाते हैं, जहाँ विवेक और बुद्धि का सुखद साम्राज्य होता है। शुक्ल जी एक कुशल निबन्धकार तो थे ही, वे समालोचना और इतिहास-लेखन के क्षेत्र में भी अग्रगण्य थे। इन्होंने अपने काल के ही नहीं अपितु वर्तमान के भी लेखक और पाठक दोनों का ही पर्याप्त मार्गदर्शन किया है।
जीवन-परिचय – हिन्दी के प्रतिभासम्पन्न मूर्धन्य समीक्षक एवं युग-प्रवर्तक साहित्यकार आचार्य रामचन्द्र शुक्ल का जन्म सन् 1884 ई० में बस्ती जिले के अगोना नामक ग्राम के एक सम्भ्रान्त परिवार में हुआ था। इनके पिता चन्द्रबली शुक्ल मिर्जापुर में कानूनगो थे। इनकी माता अत्यन्त विदुषी और धार्मिक थीं। इनकी प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा अपने पिता के पास जिले की राठ तहसील में हुई और इन्होंने मिशन स्कूल से मित्रता 73 दसवीं की परीक्षा उत्तीर्ण की। गणित में कमजोर होने के कारण ये आगे नहीं पढ़ सके। इन्होंने एफ० ए० (इण्टरमीडिएट) की शिक्षा इलाहाबाद से ली थी, किन्तु परीक्षा से पूर्व ही विद्यालय छूट गया। इसके पश्चात् इन्होंने मिर्जापुर के न्यायालय में नौकरी आरम्भ कर दी। यह नौकरी इनके स्वभाव के अनुकूल नहीं थी, अतः ये मिर्जापुर के मिशन स्कूल में चित्रकला के अध्यापक हो गये। अध्यापन का कार्य करते हुए इन्होंने अनेक कहानी, कविता, निबन्ध, नाटक आदि की रचना की। इनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर इन्हें हिन्दी शब्द-सागर’ के सम्पादन-कार्य में सहयोग के लिए श्यामसुन्दर दास जी द्वारा काशी नागरी प्रचारिणी सभा में ससम्मान बुलवाया गया। इन्होंने 19 वर्ष तक काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ का सम्पादन भी किया। कुछ समय पश्चात् इनकी नियुक्ति काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग के प्राध्यापक के रूप में हो । गयी और श्यामसुन्दर दास जी के अवकाश प्राप्त करने के बाद ये हिन्दी विभाग के अध्यक्ष भी हो गये। स्वाभिमानी और गम्भीर प्रकृति का हिन्दी का यह दिग्गज साहित्यकार सन् 1941 ई० में स्वर्गवासी हो गया।
रचनाएँ – शुक्ल जी एक प्रसिद्ध निबन्धकार, निष्पक्ष आलोचक, श्रेष्ठ इतिहासकार और सफल सम्पादक थे। इनकी रचनाओं का विवरण निम्नवत् है-
(1) निबन्ध – इनके निबन्धों का संग्रह ‘चिन्तामणि’ (दो भाग) तथा ‘विचारवीथी’ नाम से प्रकाशित हुआ।
(2) आलोचना – शुक्ल जी आलोचना के सम्राट् हैं। इस क्षेत्र में इनके तीन ग्रन्थ प्रकाशित हुए –
(क) रस मीमांसा – इसमें सैद्धान्तिक आलोचना सम्बन्धी निबन्ध हैं,
(ख) त्रिवेणी – इस ग्रन्थ में सूर, तुलसी और जायसी पर आलोचनाएँ लिखी गयी हैं तथा
(ग) सूरदास।
(3) इतिहास – युगीन प्रवृत्तियों के आधार पर लिखा गया इनका हिन्दी-साहित्य का इतिहास हिन्दी के लिखे गये सर्वश्रेष्ठ इतिहासों में एक है।
(4) सम्पादन – इन्होंने ‘जायसी ग्रन्थावली’, ‘तुलसी ग्रन्थावली’, ‘भ्रमरगीत सार’, ‘हिन्दी शब्द-सागर’, ‘काशी नागरी प्रचारिणी पत्रिका’ और ‘आनन्द कादम्बिनी’ का कुशल सम्पादन किया।
इसके अतिरिक्त शुक्ल जी ने कहानी (ग्यारह वर्ष का समय), काव्य-रचना (अभिमन्यु-वध) की रचना की तथा कुछ अन्य भाषाओं से हिन्दी में अनुवाद भी किये। इनमें ‘मेगस्थनीज का भारतवर्षीय विवरण’, ‘आदर्श जीवन’, ‘कल्याण का आनन्द’, ‘विश्व प्रबन्ध’, ‘बुद्धचरित’ (काव्य) आदि प्रमुख हैं।
साहित्य में स्थान – हिन्दी निबन्ध को नया आयाम देकर उसे ठोस धरातल पर प्रतिष्ठित करने वाले शुक्ल जी हिन्दी-साहित्य के मूर्धन्य आलोचक, श्रेष्ठ निबन्धकार, निष्पक्ष इतिहासकार, महान् शैलीकार एवं युग-प्रवर्तक साहित्यकार थे। ये हृदय से कवि, मस्तिष्क से आलोचक और जीवन से अध्यापक थे। हिन्दी-साहित्य में इनका मूर्धन्य स्थान है। इनकी विलक्षण प्रतिभा के कारण ही इनके समकालीन हिन्दी गद्य के काल को ‘शुक्ल युग’ के नाम से सम्बोधित किया जाता है।
शुक्ल जी के विषय में आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कहा है कि आचार्य शुक्ल उन महिमाशाली लेखकों में हैं, जिनकी प्रत्येक पंक्ति आदर के साथ पढ़ी जाती है और भविष्य को प्रभावित करती रहती है। आचार्य शब्द ऐसे ही कर्ता साहित्यकारों के योग्य है।”