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निम्नलिखित अवतरणों के आधार पर उनके साथ दिये गये प्रश्नों के उत्तर लिखिए-

हम लोग ऐसे समय में समाज में प्रवेश करके अपना कार्य आरम्भ करते हैं, जब कि हमारा चित्त कोमल और हर तरह का संस्कार ग्रहण करने योग्य रहता है, हमारे भाव अपरिमार्जित और हमारी प्रवृत्ति अपरिपक्व रहती है। हम लोग कच्ची मिट्टी की मूर्ति के समान रहते हैं, जिसे जो जिस रूप का चाहे, उस रूप का करें-चाहे राक्षस बनावें, चाहे देवता। ऐसे लोगों का साथ करना हमारे लिए बुरा है, जो हमसे अधिक दृढ़ संकल्प के हैं; क्योंकि हमें उनकी हर एक बात बिना विरोध के मान लेनी पड़ती है। पर ऐसे लोगों को साथ करना और बुरा है, जो हमारी ही बात को ऊपर रखते हैं; क्योंकि ऐसी दशा में न तो हमारे ऊपर कोई दबाव रहता है और न हमारे लिए कोई सहारा रहता है।

(अ) प्रस्तुत गद्यांश का सन्दर्भ लिखिए अथवा गद्यांश के पाठ और लेखक का नाम लिखिए।

(ब) रेखांकित अंशों की व्याख्या कीजिए।

(स) 1. लेखक के अनुसार व्यक्तियों को किन लोगों का साथ नहीं करना चाहिए ?कैसे लोगों को साथ करना बुरी है?

या

2. सामाजिक जीवन में प्रवेश के समय चित्त, भाव और प्रवृत्ति की स्थिति को स्पष्ट कीजिए।

या

3. प्रस्तुत अवतरण में लेखक क्या कहना चाहता है ?

या

4. सामाजिक जीवन के प्रारम्भिक समय में हमारी क्या स्थिति होती है ?
[अपरिमार्जित = बिना शुद्ध की हुई। प्रवृत्ति = मन का झुकाव। अपरिपक्व = अविकसित, जो परिपक्व नहीं है।]

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(अ) प्रस्तुत गद्यावतरण’ आचार्य रामचन्द्र शुक्ल द्वारा लिखित एवं हमारी पाठ्यपुस्तक ‘हिन्दी’ के गद्य-खण्ड में संकलित ‘मित्रता’ नामक निबन्ध से अवतरित है।
अथवा निम्नवत् लिखें-
पाठ का नाम – मित्रता। लेखक का नाम – आचार्य रामचन्द्र शुक्ल।

(ब) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या – लेखक का कथन है कि जब  हम अपने घर से बाहर निकलकर समाज में कार्य आरम्भ करते हैं, तब हम प्रायः अपरिपक्व ही होते हैं। उस समय हमारा मन कोमल होता है। हम जिस किसी स्वभाव के लोगों के सम्पर्क में आते हैं, उनका हमारे चित्त पर अवश्य प्रभाव पड़ता है; क्योंकि हमें उस समय अच्छे-बुरे का विवेक नहीं होता। हमारे विचार अच्छी तरह शुद्ध नहीं होते और हमारा स्वभाव पूरी तरह विकसित भी नहीं होता।

द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या – लेखक का कहना है कि जब व्यक्ति घर की सीमाओं से बाहर निकलकर सामाजिक जीवन में प्रवेश करता है, उस समय उसका स्वभाव कच्ची मिट्टी के समान होता है। मिट्टी की मूर्ति जब तक आग में नहीं तपायी जाती, तब तक उसे इच्छानुसार रूप दिया जा सकता है। उसी प्रकार जब तक हमारे स्वभाव और विचारों में दृढ़ता नहीं होगी, तब तक हमारे आचरण को मनचाहे रूप में ढाला जा सकता है। उस समय हमारे ऊपर मित्रों के आचरण का गहरा प्रभाव पड़ता है, यदि उस समय हम पर अच्छी बातों का प्रभाव पड़ गया तो हम देवताओं के समान सम्माननीय बन सकते हैं और बुरी बातों का प्रभाव पड़ गया तो हमारा आचरण राक्षसों के समान घृणित और नीच भी हो सकता है।

तृतीय रेखांकित अंश की व्याख्या – लेखक का मत है कि हमें ऐसे लोगों की संगति नहीं करनी चाहिए, जिनकी इच्छा-शक्ति हमसे अधिक सबल और संकल्प हमसे अधिक दृढ़ हों। इसका कारण यह है कि वे अपनी बात, जो चाहे अच्छी हो या बुरी, हमसे बिना विरोध के मनवा लेंगे; परिणामस्वरूप हम निर्बल होते चले जाएँगे। हमें निर्बल संकल्प शक्ति के लोगों का साथ करना इन दृढ़ संकल्प शक्ति वाले लोगों से भी अधिक बुरा है, जो हमारी ही बात को सर्वोपरि रखते हों। ऐसी स्थिति में उचित प्रतिरोध और सहयोग के अभाव में हमारी ही प्रवृत्तियाँ बिगड़ सकती हैं। तात्पर्य यह है कि हाँ में हाँ मिलाने वाले तथा अच्छी-बुरी दोनों बातों का समर्थन करने वाले व्यक्ति सच्चे मित्र नहीं हो सकते।

(स) 1. लेखक के अनुसार हमें निम्नलिखित दो प्रकार के लोगों का साथ नहीं करना चाहिए

(i) ऐसे लोग जिनकी हर बात हमें बिना विरोध के माननी पड़ती हो।
(ii) ऐसे लोग जो सदैव हमारी ही बात को महत्त्व प्रदान करें अथवा ऊपर रखें।

2. सामाजिक जीवन में प्रवेश के समय हमारे भाव अच्छी तरह शुद्ध नहीं होते, हमारा चित्त कोमल होता है और हमारी प्रवृत्ति पूर्ण रूप से परिपक्व नहीं होती।

3. प्रस्तुत अवतरण में लेखक कहना चाहता है कि किशोरावस्था सबसे अधिक  संवेदनशील और क्रियात्मक अवस्था होती है। इस अवस्था में उचित-अनुचित का विवेक नहीं होता। अतः मित्रों का चयन करते समय विशेष जागरूकता रखनी चाहिए।

4. सामाजिक जीवन के प्रारम्भिक समय में हमारी स्थिति कच्ची मिट्टी की मूर्ति के सदृश होती है, जिसे इच्छानुसार कोई भी स्वरूप दिया जा सकता है।

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