(अ) प्रथम रेखांकित अंश की व्याख्या – आचार्य शुक्ल का कथन है कि बचपन में जब बच्चे एक साथ विद्यालयों में पढ़ते हैं और आपस में मित्र बनते हैं, तब की मित्रता में और जब वे युवावस्था में पहुँचते हैं, तब उनकी मित्रता का स्वरूप बदल जाता है। अब उनकी मित्रता में अधिक दृढ़ता, शान्ति और गम्भीरता होती है। बात-बात पर रूठने व मनाने-मानने की स्थिति नहीं रह जाती। युवावस्था में उम्र के अनुसार जो अनुभव एवं चिन्तन की प्रवृत्ति विकसित होती है, उससे व्यक्तित्व के साथ मैत्रीभाव में भी दृढ़ता आती है।
द्वितीय रेखांकित अंश की व्याख्या – लेखक का कथन है कि मानव-जीवन अनेकानेक कष्टसंकटों से घिरा होता है। इसमें कल्पित आदर्श के आधार पर मित्रता नहीं की जाती, अपितु यथार्थ के आधार पर मित्र बनाये जाते हैं और बहुत सोच-समझकर बनाये जाते हैं; क्योंकि कल्पित आदर्श के आधार पर बनाये गये मित्र स्थायी नहीं हो सकते और जीवन की संकटापन्न परिस्थितियों में वे हमारे लिए सहायक भी नहीं होते तथा मित्रता की मधुर कल्पनाएँ व्यर्थ सिद्ध होने लगती हैं।
(ब) 1. प्रस्तुत पंक्तियों में लेखक ने बाल्यावस्था और युवावस्था की मित्रता एवं उस समय के मित्रों के मध्य तुलना की है तथा यह स्पष्ट किया है कि मित्रता में कोरी-मधुर कल्पनाओं से नहीं वरन् व्यावहारिकता से काम लेना चाहिए।
2. युवा पुरुषों की मित्रता स्थायी, शान्तिप्रियता और गम्भीरता से युक्त होती है, जब कि बालकों की मित्रता इनसे मुक्त होती है।
3. मित्रता में कल्पित आदर्श सामान्य स्थितियों-परिस्थितियों में तो सहायक हो सकते हैं, लेकिन विषम परिस्थितियों में कदापि सहायक नहीं होते।