[ हरि राई = श्रीकृष्ण पंगु = लँगड़ा। लंधै = लाँघ लेता है। गैंग = पूँगा। रंक = दरिद्र। पाई = चरण।।
सन्दर्भ-यह पद्य श्री सूरदास द्वारा रचित ‘सूरसागर’ नामक ग्रन्थ से हमारी पाठ्य-पुस्तक ‘हिन्दी के ‘काव्य-खण्ड’ में संकलित ‘पद’ शीर्षक से उद्धृत है।
[ विशेष—इस पाठ के शेष सभी पद्यांशों की व्याख्या में यही सन्दर्भ प्रयुक्त होगा।]
प्रसंग-इस पद्य में भक्त कवि सूरदास जी ने श्रीकृष्ण की महिमा का वर्णन करते हुए उनके चरणों की वन्दना की है। |
व्याख्या-भक्त-शिरोमणि सूरदास श्रीकृष्ण के कमलरूपी चरणों की वन्दना करते हुए कहते हैं। कि इन चरणों का प्रभाव बहुत व्यापक है। इनकी कृपा हो जाने पर लँगड़ा व्यक्ति भी पर्वतों को लाँघ लेता है। और अन्धे को सब कुछ दिखाई देने लगता है। इन चरणों के अनोखे प्रभाव के कारण बहरा व्यक्ति सुनने लगता है और गूंगा पुनः बोलने लगता है। किसी दरिद्र व्यक्ति पर श्रीकृष्ण के चरणों की कृपा हो जाने पर वह राजा बनकर अपने सिर पर राज-छत्र धारण कर लेता है। सूरदास जी कहते हैं कि ऐसे दयालु प्रभु श्रीकृष्ण के चरणों की मैं बार-बार वन्दना करता हूँ।
काव्यगत सौन्दर्य-
⦁ श्रीकृष्ण के चरणों का असीम प्रभाव व्यंजित है। कवि का भक्ति-भाव अनुकरणीय है।
⦁ भाषा-साहित्यिक ब्रज।
⦁ शैली-मुक्तक
⦁ छन्द-गेय पद।
⦁ रस-भक्ति।
⦁ शब्दशक्ति –लक्षणा।
⦁ गुण–प्रसाद।
⦁ अलंकार-चरन-कमल’ में रूपक, पुनरुक्तिप्रकाश तथा अन्यत्र अनुप्रास।