[ निमिष = पलक झपकने का समय। तृषित = प्यासा। तड़ागा = तालाब। जिय = हृदय में। लखि = देखकर। लाघव = शीघ्रता से। दामिनि = बिजली। ठाढ़े = खड़े हुए। भुवन = संसार। धुनि = ध्वनि।]
प्रसंग-प्रस्तुत पद में सीता जी का राम के प्रति प्रेम और शिव-धनुष के टूटने का वर्णन किया गया है। |
व्याख्या—गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि श्रीरामचन्द्र जी ने सीताजी को बहुत ही व्याकुल देखा। उन्होंने अनुभव किया कि उनका एक-एक क्षण एक-एक कल्प (चार अरब बत्तीस करोड़ वर्ष : 4,32,00,00,000) के समान व्यतीत हो रहा था। यदि प्यासा व्यक्ति पानी न मिलने पर अपना शरीर छोड़ दे, तो उसके चले जाने पर अमृत का तालाब भी क्या करेगा, सारी खेती के सूख जाने पर वर्षा किस काम की, समय के बीत जाने पर फिर पछताने से क्या लाभ। आशय यह है कि समय के व्यतीत होने पर सब कुछ व्यर्थ हो जाता है। अपने हृदय में ऐसा विचार करके श्रीरामचन्द्र जी ने सीताजी की ओर देखा और उनका अपने प्रति विशेष प्रेम देखकर वे हर्ष से विह्वल हो उठे। मन-ही-मन उन्होंने गुरु विश्वामित्र को प्रणाम किया और अत्यधिक स्फूर्ति के साथ धनुष को उठा लिया। जैसे ही उन्होंने धनुष को अपने हाथ में उठाया, वह उनके हाथ में बिजली की तरह चमका और आकाश में मण्डलाकार हो गया। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि सभा में उपस्थित लोगों में से किसी ने भी श्रीरामचन्द्र जी को धनुष उठाते, चढ़ाते और जोर से खींचते हुए नहीं देखा; अर्थात् ये तीनों ही काम इतनी शीघ्रता से हुए कि इसका किसी को पता ही नहीं लगा। सभी ने श्रीरामचन्द्र जी को मात्र खड़े देखा और उसी क्षण उन्होंने धनुष को बीच से तोड़ डाला। धनुष के टूटने की ध्वनि इतनी भयंकर हुई कि वह तीनों लोकों में व्याप्त हो गयी। |
काव्यगत सौन्दर्य-
⦁ राम-सीता के पारस्परिक प्रेम की सार्थक अभिव्यक्ति हुई है।
⦁ भाषाअवधी।
⦁ शैली–प्रबन्ध और सूक्तिपरक।
⦁ रस-शृंगार और अद्भुत।
⦁ छन्द-दोहा।
⦁ अलंकार-अनुप्रास और उत्प्रेक्षा।
⦁ गुण-माधुर्य।
⦁ शब्दशक्ति–अभिधा और लक्षणा।