[ बैन = शब्द। सुधारस-साने = अमृत-रस में सने हुए। सयानी = चतुर। भली = अच्छी तरह से। सैन = संकेत। अवलोकति = देखती है। लाहु = लाभ। अली = सखी। अनुराग-तड़ाग = प्रेम रूपी सरोवर। बिगसीं = खिल रही हैं। मंजुल = सुन्दर। कंज = कमल।]
प्रसंग-इन पंक्तियों में ग्रामवधुओं के प्रश्न का उत्तर देती हुई सीताजी अपने हाव-भावों से ही राम के विषय में सब कुछ बता देती हैं।
व्याख्या-ग्रामवधुओं ने राम के विषय में सीताजी से पूछा कि ये साँवले और सुन्दर रूप वाले तुम्हारे क्या लगते हैं?’ ग्रामवधुओं के अमृत जैसे मधुर वचनों को सुनकर चतुर सीताजी उनके मनोभाव को समझ गयीं। सीताजी ने उनके प्रश्न का उत्तर अपनी मुस्कराहट तथा संकेत भरी दृष्टि से ही दे दिया, उन्हें मुख से कुछ बोलने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। उन्होंने स्त्रियोचित लज्जा के कारण केवल संकेत से ही राम के विषय में यह समझा दिया कि ये मेरे पति हैं। तुलसीदास जी कहते हैं कि सीताजी के संकेत को समझकर सभी सखियाँ राम के सौन्दर्य को एकटक देखती हुई अपने नेत्रों का लाभ प्राप्त करने लगीं। उस समय ऐसा प्रतीत हो रहा था, मानो प्रेम के सरोवर में रामरूपी सूर्य का उदय हो गया हो और ग्रामवधुओं के नेत्ररूपी कमल की सुन्दर कलियाँ खिल गयी हों।
काव्यगत सौन्दर्य
⦁ सीता जी का संकेतपूर्ण उत्तर भारतीय नारी की मर्यादा तथा ‘लब्धः नेत्र . निर्वाण:’ की भावना के अनुरूप है।
⦁ प्रस्तुत पद में ‘नाटकीयता और काव्य’ का सुन्दर योग है।
⦁ भाषा-सुललित ब्रज।
⦁ शैली—चित्रात्मक व मुक्तक।
⦁ छन्द-सवैया।
⦁ रस-श्रृंगार।
⦁ अलंकार–‘सुनि सुन्दर बैन सुधारस साने, सयानी हैं जानकी जानी भली में अनुप्रास, ‘अनुराग-तड़ाग में भानु उदै बिगसीं मनो मंजुल कंज कली’ में रूपक, उत्प्रेक्षा और अनुप्रास की छटा है।
⦁ गुणमाधुर्य।
⦁ शब्दशक्ति–व्यंजना।