[ हुती = थी। भोर = प्रात:काल। हौं = मैं। रई बहि = प्रेम में डूब गयी। भौनहिं = भवन में। वाको = उसका, यशोदा का। जुग = युग। डिठौनहिं == काला टीका। हमेलनि = हमेल (सोने का एक आभूषण) को। निहारत = देख रही थी। बारत = न्योछावर करते हुए। पुचकारत = पुचकार रही थी। छौनहिं = पुत्र को।]
प्रसंग-इसे पद्य में कवि ने श्रीकृष्ण के प्रति यशोदा के वात्सल्य भाव का चित्रण किया है।
व्याख्या-एक गोपी दूसरी गोपी से कहती है कि हे सखी ! आज प्रात:काल के समय श्रीकृष्ण के प्रेम में मग्न हुई मैं नन्द जी के घर गयी थी। मेरी कामना है कि उनका पुत्र श्रीकृष्ण लाखों-करोड़ों युगों तक जीवित रहे। यशोदा के सुख के बारे में कुछ कहते नहीं बनता है; अर्थात् उनको अवर्णनीय सुख की प्राप्ति हो रही है। वे अपने पुत्र का श्रृंगार कर रही थीं। वे श्रीकृष्ण के शरीर में तेल लगाकर आँखों में काजल लगा रही थीं। उन्होंने उनकी सुन्दर-सी भौंहें सँवारकर बुरी नजर से बचाने के लिए माथे पर टीका (डिठौना) लगा दिया था। वे उनके गले में सोने का हार डालकर और एकाग्रता से उनके रूप को निहारकर अपने जीवन को न्योछावर कर रही थीं और प्रेमावेश में बार-बार अपने पुत्र को पुचकार रही थीं।
काव्यगत सौन्दर्य-
⦁ प्रस्तुत छन्द में माता यशोदा के वात्सल्य-भाव और श्रीकृष्ण के प्रात:कालीन श्रृंगार का अनुपम वर्णन किया गया है।
⦁ भाषा-ब्रज।
⦁ शैली-चित्रात्मक और मुक्तक।
⦁ रसवात्सल्य
⦁ छन्द-सवैया।
⦁ अलंकार-यमक, अनुप्रास और पुनरुक्तिप्रकाश।
⦁ गुण–प्रसाद।