[ ग्रह = सूर्य की परिक्रमा करने वाले तारे। इनके नाम हैं-पृथ्वी, बुध, शुक्र, मंगल, बृहस्पति, शनि, प्लूटो, नेप्च्यून, यूरेनस। (प्रस्तुत कविता के अनुसार नौ ग्रह हैं; परन्तु वर्तमान में केवल आठ ग्रह माने गये हैं। प्लूटो को क्षुद्र ग्रह माना गया है)। उपग्रह = किसी बड़े ग्रह के चारों ओर घूमने वाले छोटे ग्रह; जैसे पृथ्वी का उपग्रह चन्द्रमा। श्यामल = हरा-भरा। संपद् = सम्पत्ति, वैभव। मंगल = कल्याण। नव दिक् = नयी दिशाएँ। रचना = सृजन, निर्माण। पद्धति = रास्ता। समन्वित = मिले हुए। विस्तृत = विशाल।]
व्याख्या-कवि का कथन है कि मैं अब यह चाहता हूँ कि ब्रह्माण्ड के ग्रहों-उपग्रहों में इस पृथ्वी का श्यामलं अंचल फहराने लगे। तात्पर्य यह है कि मनुष्य अन्य ग्रहों पर भी पहुँचकर वहाँ पृथ्वी जैसी हरियाली और जीवन का संचार कर दे। सुख और वैभव से युक्त इस संसार में मानव-जीवन के कल्याण की वर्षा हो; अर्थात् सम्पूर्ण संसार में कहीं भी दु:ख और दैन्य दिखाई न पड़े।
अमेरिका और सोवियत रूस नयी दिशाओं की रचना करें, क्योंकि अन्तरिक्ष विज्ञान में यही देश सर्वाधिक प्रगति पर हैं। कवि का कहना है कि विश्व में प्रत्येक देश की संस्कृति और सभ्यता भिन्न-भिन्न है। तथा अलग-अलग जीवन-पद्धतियाँ हैं। इनकी भिन्नता समाप्त होनी चाहिए। तात्पर्य यह है कि सभी जीवन-पद्धतियाँ आपस में मिलकर एक हो जाएँ और मन की संकुचित भावना का अन्त कर लोग उदारचेता बने तथा विश्व-मानव में ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ की भावना का विकास हो।
काव्यगत सौन्दर्य-
⦁ कवि चारों ओर कल्याणमय जीवन के प्रसार की कामना करता है।
⦁ भाषा-साहित्यिक खड़ी बोली
⦁ शैली–प्रतीकात्मक।
⦁ रस-वीर।
⦁ छन्द-तुकान्तमुक्त।
⦁ गुण-ओज।
⦁ अलंकार-‘फहराये ग्रह-उपग्रह में धरती का श्यामल अंचल में रूपक तथा अनुप्रास।