श्री रामबहोरी शुक्ल द्वारा रचित ‘अग्रपूजा’ नामक खण्डकाव्य का कथानक श्रीमद्भागवत और महाभारत से लिया गया है। इसमें भारतीय जनजीवन को प्रभावित करने वाले महापुरुष श्रीकृष्ण के पावन चरित्र पर विविध दृष्टिकोणों से प्रकाश डाला गया है। युधिष्ठिर ने अपने राजसूय यज्ञ में श्रीकृष्ण को सर्वश्रेष्ठ मानकर उनकी पूजा की थी, इसी आधार पर खण्डकाव्य का नामकरण हुआ है। सम्पूर्ण काव्य का कथानक छः सर्गों में विभक्त है। उनका सारांश इस प्रकार है
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य का प्रथम सर्ग ‘पूर्वाभास है। इस सर्ग की कथा का प्रारम्भ दुर्योधन द्वारा समस्त पाण्डवों का विनाश करने के लिए लाक्षागृह में आग लगवाने से होता है। दुर्योधन को पूर्ण विश्वास हो गया कि पाण्डव जलकर भस्म हो गये, परन्तु पाण्डवों ने उस स्थान से जीवित निकलकर दुर्योधन की चाल को विफल कर दिया। वे वेश बदलकर घूमते हुए द्रौपदी के स्वयंवर-मण्डप में पहुँचे और अर्जुन ने आसानी से मत्स्य-वेध करके स्वयंवर की शर्त पूर्ण की। कुन्ती की इच्छा और व्यास जी के अनुमोदन पर द्रौपदी का विवाह पाँचों भाइयों से कर दिया गया।
दुर्योधन पाण्डवों को जीवित देखकर ईर्ष्या की अग्नि में जलने लगा। धृतराष्ट्र भीष्म, द्रोण और विदुर । से परामर्श करके सत्य-न्याय की रक्षा के लिए पाण्डवों को आधा राज्ये देने हेतु सहमत हो गये। दुर्योधन, कर्ण, दुःशासन और शकुनि मिलकर सोचने लगे कि पाण्डवों से सदा-सदा के लिए कैसे मुक्ति मिले।
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य का दूसरा सर्ग ‘सभारम्भ’ है। सर्ग का प्रारम्भ श्रीकृष्ण को साथ लेकर पाण्डवों के खाण्डव वन पहुँचने से होता है। वह विकराल वन था। श्रीकृष्ण ने विश्वकर्मा से उस वन-प्रदेश में पाण्डवों के लिए इन्द्रपुरी जैसे भव्य नगर का निर्माण कराया। इस क्षेत्र का नाम इन्द्रप्रस्थ रखा गया। हस्तिनापुर से आये हुए अनेक नागरिक और व्यापारी वहाँ बस गये। व्यास भी वहाँ आये। युधिष्ठिर को भली-भाँति प्रतिष्ठित करने के बाद व्यास और कृष्ण इन्द्रप्रस्थ से चले गये। |
युधिष्ठिर का राज्य समृद्धि की ओर बढ़ चला। उनके शासन की कीर्ति सर्वत्र (सुरलोक और पितृलोक तक) प्रसारित हो गयी।
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य का तीसरा सर्ग ‘आयोजन’ है। सर्ग की आरम्भिक कथा के अनुसार पाण्डवों ने सोचा कि नारी (द्रौपदी) कहीं उनके पारस्परिक संघर्ष का कारण न बने; अत: नारद जी की सलाह से उन्होंने द्रौपदी को एक-एक वर्ष तक अलग-अलग अपने साथ रखने का निश्चय किया। साथ ही यह भी तय कर लिया गया कि जब द्रौपदी किसी अन्य पति के साथ हो और दूसरा कोई भाई वहाँ पहुँचकर उन्हें देख ले तो वह बारह वर्षों तक वन में रहेगा। इस नियम-भंग के कारण अर्जुन बारह वर्षों के लिए वन को चले गये।
अनेक स्थानों पर भ्रमण करते हुए अर्जुन द्वारको पहुँचे। वहाँ श्रीकृष्ण की बहन सुभद्रा से विवाह करके वह इन्द्रप्रस्थ लौटे। युधिष्ठिर का राज्य सुख और शान्ति से चल रहा था। एक दिन देवर्षि नारद इन्द्रप्रस्थ नगरी में आये। उन्होंने पाण्डु का सन्देश देते हुए युधिष्ठिर को बताया कि यदि वे राजसूय यज्ञ करें तो उन्हें इन्द्रलोक में निवास मिल जाएगा। आयु पूर्ण हो जाने पर युधिष्ठिर भी वहाँ जाएँगे। युधिष्ठिर ने सलाह के लिए श्रीकृष्ण को द्वारका से बुलवाया और राजसूय यज्ञ की बात बतायी। श्रीकृष्ण ने सलाह दी कि जब तक जरासन्ध का वध न होगा, राजसूय यज्ञ सम्पन्न नहीं हो सकता। जरासन्ध को सम्मुख युद्ध में जीत पाना सम्भव नहीं था। श्रीकृष्ण ने जरासन्ध को तीनों का परिचय दिया और किसी से भी मल्लयुद्ध करने के लिए ललकारा। जरासन्ध ने भीम से मल्लयुद्ध करना स्वीकार कर लिया। श्रीकृष्ण के संकेत पर भीम ने उसकी एक टाँग को पैर से दबाकर दूसरी टाँग ऊपर को उठाते हुए बीच से चीर दिया। उसके पुत्र सहदेव को वहाँ का राजा बनाया। युधिष्ठिर ने चारों भाइयों को दिग्विजय करने के लिए चारों दिशाओं में भेजा। इस प्रकार अब सम्पूर्ण भारत युधिष्ठिर के ध्वज के नीचे आ गया और युधिष्ठिर ने राजसूय यज्ञ की योजनाबद्ध तैयारी प्रारम्भ कर दी।
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य का चतुर्थ सर्ग प्रस्थान है। इस सर्ग में राजसूय यज्ञ से पूर्व की तैयारियों का वर्णन किया गया है। राजसूय यज्ञ के लिए चारों ओर से राजागण आये। श्रीकृष्ण को बुलाने के लिए अर्जुन स्वयं द्वारका गये। उन्होंने प्रार्थना की कि आप चलकर यज्ञ को पूर्ण कराइए और पाण्डवों के मान-सम्मान की रक्षा कीजिए। श्रीकृष्ण ने सोचा कि इन्द्रप्रस्थ में एकत्र राजाओं में कुछ ऐसे भी हैं, जो मिलकर गड़बड़ी कर सकते हैं; अतः वे अपनी विशाल सेना लेकर इन्द्रप्रस्थ पहुँच गये। युधिष्ठिर ने नगर के बाहर ही बड़े सम्मान के साथ उनका स्वागत किया। श्रीकृष्ण के प्रभाव और स्वागत-समारोह को देखकर रुक्मी और शिशुपाल ईर्ष्या से तिलमिला उठे।
‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य का पञ्चम सर्ग ‘राजसूय यज्ञ’ है। राजसूय यज्ञ प्रारम्भ होने से पूर्व सभी राजाओं ने अपना-अपना स्थान ग्रहण कर लिया। युधिष्ठिर ने यज्ञ की सुचारु व्यवस्था के लिए पहले से ही स्वजनों को सभी काम बाँट दिये थे। श्रीकृष्ण ने स्वेच्छा से ही ब्राह्मणों के चरण धोने का कार्य अपने ऊपर ले लिया। जब भीष्म ने गम्भीर वाणी में सभासदों से पूछा, कृपया बताएँ कि अग्रपूजा का अधिकारी कौन है? सहदेव ने तुरन्त कहा कि यहाँ श्रीकृष्ण ही परम-पूज्य और प्रथम पूज्य हैं। भीष्म ने सहदेव का समर्थन किया। सभी लोगों ने उनका एक साथ अनुमोदन किया। केवल शिशुपाल ने श्रीकृष्ण के चरित्र पर दोषारोपण करते हुए इस बात का विरोध किया। अन्ततः सहदेव ने कहा कि मैं श्रीकृष्ण को सम्मानित करने जा रहा हूँ, जिसमें भी सामर्थ्य हो वह मुझे रोक ले। शिशुपाल तुरन्त क्रोधातुर होकर श्रीकृष्ण पर आक्रमण करने दौड़ा। श्रीकृष्ण मुस्कराते रहे और तब वह श्रीकृष्ण के प्रति नाना प्रकार के अपशब्द कहने लगा। श्रीकृष्ण ने उसे सावधान किया और कहा कि फूफी को वचन देने के कारण ही मैं तुझे क्षमा करता जा रहा हूँ। फिर भी शिशुपाल ने माना और उनकी कटु निन्दा करता रहा, अन्ततः श्रीकृष्ण ने सुदर्शन चक्र से उसका सिर काट दिया।
षष्ठ सर्ग ‘उपसंहार’ में उल्लिखित शिशुपाल और कृष्ण के विवाद का यज्ञ पर कोई प्रभाव नहीं पड़ा। यज्ञ निर्विघ्न चलता रहा। व्यास, धौम्य आदि सोलह तत्त्वज्ञानी ऋषियों ने यज्ञ-कार्य सम्पन्न किया। युधिष्ठिर ने उन्हें दान-दक्षिणा देकर उनका यथोचित सत्कार किया। तत्त्वज्ञानी ऋषियों ने भी युधिष्ठिर को हार्दिक आशीर्वाद दिया, जिसे युधिष्ठिर ने विनम्र भाव से शिरोधार्य किया।