राजसूय यज्ञ के लिए चारों ओर से राजागण आये। श्रीकृष्ण को बुलाने के लिए अर्जुन स्वयं द्वारका गये। उन्होंने प्रार्थना की कि आप चलकर यज्ञ को पूर्ण कराइए और पाण्डवों के मान-सम्मान की रक्षा कीजिए। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को विदा कर बलराम, उद्धव और दरबारी जनों से विचार-विमर्श किया। उन्होंने सोचा कि इन्द्रप्रस्थ में एकत्र राजाओं में कुछ ऐसे भी हैं, जो ऊपरी मन से तो अधीनता स्वीकार कर चुके हैं, पर मन से उनके विरोधी हैं। ये लोग मिलकर कुछ गड़बड़ी अवश्य कर सकते हैं; अत: निश्चय हुआ कि वे पूरी साज-सज्जा और सैन्य बल के साथ तैयार होकर जाएँगे। श्रीकृष्ण अपनी विशाल सेना लेकर इन्द्रप्रस्थ पहुँच गये। युधिष्ठिर ने नगर के बाहर ही बड़े सम्मान के साथ उनका स्वागत किया और स्वयं श्रीकृष्ण का रथ हाँकते हुए उन्हें नगर में प्रवेश कराया। विशाल जन-समुदाय श्रीकृष्ण की शोभा-यात्रा को देखने के लिए उमड़ पड़ा। नगरवासी अपार श्रद्धा और प्रेम से श्रीकृष्ण का गुणगान कर रहे थे। श्रीकृष्ण भव्य स्वागत के बाद युधिष्ठिर के महल में ठहराये गये। श्रीकृष्ण के प्रभाव और स्वागत-समारोह को देखकर रुक्मी और शिशुपाल ईष्र्या से तिलमिला उठे। वे पहले से ही श्रीकृष्ण से द्वेष रखते थे। वे रातभर इसी वैरभाव और द्वेष की आग में जलते रहे और क्षणभर भी सो न सके।