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‘अग्रपूजा’ के आधार पर शिशुपाल वध का वर्णन संक्षेप में कीजिए।

या

‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के ‘राजसूय यज्ञ’ सर्ग (पञ्चम सर्ग) का सारांश अपने शब्दों में लिखिए।

या

सभा में शिशुपाल से भीष्म ने क्या कहा, इस पर विशेष प्रकाश डालिए।

या

‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के पञ्चम सर्ग (राजसूय यज्ञ) का सारांश लिखिए।

या

‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य में सबसे अधिक प्रभावित करने वाली घटना का सकारण उल्लेख कीजिए।

या

‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के आधार पर शिशुपाल वध के सन्दर्भ में श्रीकृष्ण की सहनशीलता का उल्लेख कीजिए।

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यज्ञ प्रारम्भ होने से पूर्व सभी राजाओं ने अपना-अपना स्थान ग्रहण कर लिया। युधिष्ठिर ने यज्ञ की सुचारु व्यवस्था के लिए पहले से ही स्वजनों को सभी काम बाँट दिये थे। श्रीकृष्ण ने स्वेच्छा से ही ब्राह्मणों के चरण धोने का कार्य अपने ऊपर ले लिया। यज्ञ कार्य करने आये ब्राह्मणों के चरण श्रीकृष्ण ने धोये। जब यज्ञशाला में बलराम और सात्यकि के साथ श्रीकृष्ण पधारे तो सभी लोगों ने उठकर उनका सम्मान किया। केवल शिशुपाल ही उनके आगमन को अनदेखा-सा करते हुए जान-बूझकर बैठा रहा। सबकी आँखें श्रीकृष्ण पर टिकी रह गयीं। तभी भीष्म ने गम्भीर वाणी में सभासदों से पूछा, कृपया बताएँ कि सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति कौन है, जिसे सर्वप्रथम पूजा जाए; अर्थात् अग्रपूजा का अधिकारी कौन है? सहदेव ने तुरन्त कहा कि यहाँ श्रीकृष्ण ही परम-पूज्य और प्रथम पूज्य हैं। भीष्म ने सहदेव का समर्थन किया और सभी लोगों ने उनका एक साथ अनुमोदन किया। केवल शिशुपाल ने श्रीकृष्ण के चरित्र पर दोषारोपण करते हुए इस बात को विरोध किया। भीम को क्रोध आया, पर भीष्म ने भीम को रोक दिया। भीष्म बड़े संयम और शान्त भाव से शिशुपाल के तर्कों का उत्तर देते हुए बोले कि “स्वार्थ की हानि और ईष्र्या के वशीभूत होने पर मानव अन्धा हो जाता है। उसे गुण भी दोष और यश की सुगन्ध दुर्गन्ध प्रतीत होती है। उन्होंने कहा कि मनुष्यता की महिमा पूर्ण रूप में कृष्ण में ही दिखाई पड़ती है और जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में ये पूर्णरूपेण  डूबे हुए हैं। इनका सम्पूर्ण जीवन ही योग-भोग के जनक सदृश है। इनके समान रूप में जन्म लेने वाला ही इन्हें जान सकता है। सीमित दृष्टि और द्वेष बुद्धि रखने वाला व्यक्ति इन्हें नहीं जान सकता। ये पुष्प की पंखुड़ियों से भी कोमल हैं; दया, प्रेम, करुणा के भण्डार हैं तथा शील, सज्जनता, विनय और प्रेम के प्रत्यक्ष शरीर हैं। ये अनीति को मिटाते हैं। तथा धर्म-मर्यादा की स्थापना करते हैं। इस तरह से भीष्म ने श्रीकृष्ण के गुणों का वर्णन किया, फिर भी शिशुपाल अनर्गल ही बकता रहा। अन्ततः सहदेव ने कहा कि मैं श्रीकृष्ण को सम्मानित करने जा रहा हूँ, जिसमें भी सामर्थ्य हो वह मुझे रोक ले। यह कहकर सहदेव ने सर्वप्रथम श्रीकृष्ण के चरण धोये और फिर अन्य सभी पूज्यों के पाद-प्रक्षालन किये। शिशुपाल तुरन्त क्रोधातुर होकर श्रीकृष्ण पर आक्रमण करने दौड़ा। श्रीकृष्ण मुस्कराते रहे। शिशुपाल को चारों ओर कृष्ण-ही-कृष्ण दिखाई दे रहे थे। वह इधर-उधर दौड़कर घूसे मारने की चेष्टा करता हुआ हाँफने लगा और श्रीकृष्ण के प्रति नाना प्रकार के अपशब्द कहने लगा। श्रीकृष्ण ने उसे सावधान किया और कहा कि फूफी को वचन देने के कारण ही मैं तुझे क्षमा करता जा रहा हूँ। फिर भी शिशुपाल न माना और उनकी कटु निन्दा करता रहा, अन्तत: श्रीकृष्ण ने सुदर्शन-चक्र से उसका सिर काट दिया। युधिष्ठिर ने शिशुपाल के पुत्र को उसके बाद चेदि राज्य का राजा घोषित कर दिया।

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