श्री रामबहोरी शुक्ल द्वारा रचित ‘अग्रपूजा’ खण्डकाव्य के नायक श्रीकृष्ण हैं। सम्पूर्ण काव्य में श्रीकृष्ण ही प्रमुख पात्र के रूप में उभरकर आये हैं। युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में सर्वप्रथम श्रीकृष्ण की ही पूजा होती है। वे ही समस्त घटनाओं के सूत्रधार भी हैं।
हमें उनके चरित्र में निम्नलिखित विशेषताएँ दिखाई पड़ती हैं
(1) लीलाधारी दिव्य पुरुष–कवि ने मंगलाचरण में श्रीकृष्ण के विष्णु-रूप का स्मरण किया है। विश्वकर्मा से भयानक खाण्डव वन में अलौकिक नगर का निर्माण करवा देने तथा शिशुपाल को अनेक रूपों में दिखाई देने के कारण वे पाठकों को अलौकिक पुरुष के रूप में प्रतीत होते हैं।
(2) शिष्ट एवं विनयी—श्रीकृष्ण सदा बड़ों के प्रति नम्र भाव रखते हैं। वे कुन्ती आदि पूज्यजनों के सम्मुख शिष्टाचार और नम्रता का व्यवहार करते हैं। स्वयं अलौकिक शक्तिसम्पन्न होते हुए भी वे विनम्रता से युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में ब्राह्मणों के चरण धोने का कार्य स्वेच्छा से ग्रहण करते हैं।
(3) पाण्डवों के परम हितैषी-श्रीकृष्ण पाण्डवों के परम हितैषी हैं। वे उनके सभी कार्यों में पूर्ण सहयोग देते हैं। द्रौपदी के स्वयंवर में पाण्डवों को पहचानकर वे उनसे आत्मीयता से मिलने जाते हैं। वे पाण्डवों के लिए इन्द्रपुरी सदृश नगर का निर्माण करवाते हैं और उनके राजसूय यज्ञ की सफलता के लिए जरासन्ध को मारने की योजना बनाते हैं। राजसूय यज्ञ में किसी विरोधी राजा के विघ्न डालने की आशंका से वे ससैन्य यज्ञ में पहुंचते हैं। इन बातों से स्पष्ट है कि श्रीकृष्ण पाण्डवों के शुभचिन्तक हैं।
(4) अनुपम सौन्दर्यशाली–श्रीकृष्ण अलौकिक महापुरुष और अनुपम सौन्दर्यशाली थे। इन्द्रप्रस्थ जाते समय सभी नगरवासी उनके सौन्दर्य को देखने के लिए दौड़ पड़े थे। इन्द्रप्रस्थ की नारियाँ उनकी मधुर मुस्कान पर मुग्ध होकर न्योछावर हो जाती हैं
देखा सुना न पढ़ा कहीं भी, ऐसा अनुपम रूप अमन्द।
ऐसी मधु मुस्कान न देखी, हैं गोविन्द सदृश गोविन्द ॥
(5) धैर्यवान् एवं शक्तिसम्पन्न–श्रीकृष्ण परमवीर थे, यही कारण है कि वे केवल अर्जुन और भीम को साथ लेकर जरासन्ध का वध करने पहुँच जाते हैं। शिशुपाल की अशिष्टता और नीचता को भी वे बहुत देर तक सहन करते हैं। भीष्म के समझाने पर भी जब वह दुर्वचन कहने से नहीं माना तो उन्होंने उसे दण्ड देने का निश्चय कर लिया और सुदर्शन-चक्र से उसका वध कर दिया।
(6) धर्म एवं मर्यादापालक-श्रीकृष्ण राजसूय यज्ञ में ब्राह्मणों के चरण धोते हैं एवं यज्ञ में मर्यादा की रक्षा के कारण ही शिशुपाल के निन्दाजनक शब्दों को शान्त-भाव से क्षमा करते हैं। वे आदर्श मानव हैं। भीष्म के शब्दों में
शील, सुजनता, विनय, प्रेम के केशव हैं प्रत्यक्ष शरीर।
मिटा अनीति, धर्म मर्यादा स्थापन करते हैं यदुवीर॥
(7) अनासक्त योगी–श्रीकृष्ण के व्यक्तित्व में भोग और योग का सुन्दर समन्वय है। वे सांसारिक होते हुए भी संसार से निर्लिप्त हैं। जल में कमल-पत्र की भाँति वे मनुष्यों के सभी कार्यों को अनासक्त रहकर । पूर्ण करते हैं। सबके पूजनीय होने के कारण ही उन्हें अग्रपूजा के लिए चुना जाता है।
निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता है कि कृष्ण अत्यन्त शिष्ट और विनम्र हैं। वे पाण्डवों के परम हितचिन्तक और अनुपम सौन्दर्यवान् हैं। वे धर्म एवं मर्यादा के पालक और अलौकिक शक्तिसम्पन्न हैं। उनके बारे में स्वयं भीष्म कहते हैं-“श्रीकृष्ण महामानव हैं, जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में आगे रहने वाले हैं। संसार में रहकर भी वे अनासक्त और कर्मयोगी हैं। उनमें रूप, शील एवं शक्ति का अनुपम भण्डार है। योग तथा भोग से पूर्ण इनका व्यक्तित्व अनूठा उदाहरण है। ये सज्जनता, विनम्रता, प्रेम तथा उदारता के पुंज हैं। इस बात में तनिक भी सन्देह नहीं है कि श्रीकृष्ण का व्यक्तित्व अत्यन्त आदर्शपूर्ण एवं महान् है।”