युधिष्ठिर पाण्डवों में सबसे बड़े थे। इन्द्रप्रस्थ में उनका ही राज्याभिषेक किया जाता है। सभी राजा उनकी अधीनता को स्वीकार करते हैं तथा वे ही राजसूय यज्ञ सम्पन्न कराते हैं। इस प्रकार युधिष्ठिर ‘अग्रपूजा’ काव्य के प्रमुख पात्र हैं।
उनका चरित्र मानव-आदर्शों की स्थापना करने वाला है, जिसकी मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित हैं–
(1) विनम्र स्वभाव-युधिष्ठिर विनम्र स्वभाव के हैं। इन्द्रप्रस्थ में गुरु द्रोणाचार्य के प्रवेश करते ही वे विनय भाव से उनके चरणों में गिर पड़ते हैं। राजसूय यज्ञ के समय श्रीकृष्ण के आने पर वे उनका रथ स्वयं हाँककर उन्हें नगर में प्रवेश कराते हैं। यज्ञ के समाप्त होने पर वे तत्त्वज्ञानी ऋषियों को पर्याप्त दान-दक्षिणा देते हैं और उनके आशीर्वाद को विनय-भाव से स्वीकार करते हैं।
(2) आदर्श शासक-महाराज युधिष्ठिर एक आदर्श शासक के रूप में हमारे सामने आते हैं। वे राम-राज्य को आदर्श मानकर प्रजा को सुखी-सम्पन्न बनाने का प्रयत्न करते हैं
था प्रयत्न उनकी यह निशदिन, लायें भू पर स्वर्ग उतार।।
वे भारत के सभी राजाओं को जीतकर शक्तिशाली भारत राष्ट्र का निर्माण करते हैं।
(3) धार्मिक तथा सत्य-प्रेमी-युधिष्ठिर धार्मिक और सत्यप्रेमी हैं। वे प्रत्येक कार्य को धर्म और न्याय के अनुसार करते हैं और सदैव सत्य के पथ पर चलते हैं। उनके सम्बन्ध में स्वयं नारद जी इस प्रकार कहते हैं—
बोल उठे गद्गद वाणी से—धर्मराज, जीवन तव धन्य।
धरणी में सत्कर्म-निरत जन नहीं दीखता तुम-सा अन्य।
राजसूय यज्ञ को सम्पन्न करके वे अपने पिता की इच्छा को पूर्ण करते हैं।
(4) उदारहृदय-युधिष्ठिर अत्यन्त उदार हैं। वे राज्य के लिए दुर्योधन से झगड़ा नहीं करते और खाण्डव वन के भाग को ही राज्य के रूप में प्रसन्नता से स्वीकार कर लेते हैं। वे किसी राजा के राज्य को अपने राज्य में नहीं मिलाते। उन्होंने शिशुपाल और जरासन्ध का वध होने पर भी उनके राज्य को उनके पुत्रों को सौंप दिया। वे राजसूय यज्ञ में उदारतापूर्वक ब्राह्मणों को दान-दक्षिणा देते हैं।इस प्रकार युधिष्ठिर परम विनीत, धर्मात्मा, सत्य-प्रेमी, उदारहदय एवं सुयोग्य शासक हैं।