पञ्चम सर्ग में कुन्ती द्वारा कर्ण के पास जाने का वर्णन है। महाभारत का युद्ध प्रारम्भ होने में पाँच दिन शेष हैं। पाण्डवों के लिए चिन्तित कुन्ती बहुत सोच-विचारकर कर्ण के आश्रम पहुँचती है। कुन्ती के कुछ कहने से पहले ही कर्ण ने उसे अपने जीवनभर की पीड़ा को साकार करते हुए ‘सूत-पुत्र राधेय कहकर प्रणाम किया। कुन्ती की आँखों में आँसू आ गये। उसने कहा कि तुम कुन्ती-पुत्र और पाण्डवों के बड़े भाई हो। आज अपने भाइयों में मिलकर दुर्योधन का कपटजाल तोड़ दो। कर्ण ने अपने हृदय की ज्वाला माँ के सम्मुख स्पष्ट कर दी
क्यों तुमने उस दिन न कही, सबके सम्मुख ललकार।
कर्ण नहीं है सूत-पुत्र, वह भी है राजकुमार॥
स्वयं कुन्ती के सम्मुख राजभवन में अपमान, स्वयंवर-सभा में अपमान तथा सर्वत्र सूत-पुत्र कहलाने की उसकी पीड़ा उभर आयी। वह बोला कि मेरे अपमानित और लांछित होते समय तुम्हारा पुत्र-प्रेम कहाँ गया था ? मैं अपने मित्र दुर्योधन का कृतज्ञ हूँ, मैं उसे धोखा नहीं दे सकता। कर्ण की वाणी सुनकर कुन्ती की आँखों से आँसुओं की धारा बहने लगी। वह मौन खेड़ी थी। कर्ण ने कहा कि यद्यपि भाग्य मेरे साथ बहुत खिलवाड़ कर रहा है फिर भी यह विडम्बना ही होगी कि एक माता अपने पुत्र के द्वार से खाली हाथ लौट जाए। उसने कहा कि मैंने केवल अर्जुन को ही मारने की प्रतिज्ञा की है। मैं तुम्हें वचन देता हूँ कि मैं अर्जुन के अतिरिक्त किसी पाण्डव को नहीं मारूंगा। मेरे हाथों यदि अर्जुन मारा गया तो तुम अपनी इच्छानुसार उसको रिक्त स्थान मुझसे भर सकती हो और यदि मैं स्वयं मारा गया तो भी तुम पाँच पाण्डवों की माता तो रहोगी ही। इच्छित वरदान पाकर कुन्ती लौट गयी, परन्तु वह कर्ण के मन में विचारों का तूफान उठा गयी।