जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में किसी भी कार्य को सफलतापूर्वक करने के लिए कार्य का व्यवस्थित होना अनिवार्य होता है। व्यवस्था के अभाव में कोई भी कार्य उचित रूप से नहीं हो सकता। इसके विपरीत, यदि कार्य को व्यवस्थित रूप में किया जाता है, तो कार्य शीघ्रता तथा सरलता से पूरा हो जाता है। व्यवस्था के अनुसार किया गया कार्य उत्तम होता है। घर तथा परिवार के क्षेत्र में भी अनेक कार्य किए जाते हैं। इन कार्यों को सरलतापूर्वक तथा अधिक सुचारु रूप में पूरा करने के लिए गृह-व्यवस्था को लागू किया जाता है। गृह-व्यवस्था का अध्ययन गृह विज्ञान का एक मुख्य विषय है। गृह-व्यवस्था का अर्थ एवं परिभाषा का विवरण निम्नवर्णित है
व्यवस्था तथा गृह-व्यवस्था का अर्थ एवं परिभाषा
गृह-व्यवस्था का शाब्दिक अर्थ है ‘घर की व्यवस्था’ या ‘घर का प्रबन्ध’। इस स्थिति में ‘गृह-व्यवस्था के प्रत्यय को स्पष्ट करने के लिए व्यवस्था के वास्तविक अर्थ का ज्ञान प्रासंगिक है। व्यवस्था या प्रबन्ध की अवधारणा पर्याप्त विस्तृत है। जीवन के समस्त क्षेत्रों में व्यवस्था को अपनाया जाता है। व्यवस्था अपने आप में वह कला है जिसके द्वारा किसी भी संस्था (उद्योग, संस्थान या परिवार आदि) के सदस्यों, वस्तुओं तथा क्रियाओं को नियन्त्रित किया जाता है तथा इसके लिए विभिन्न पूर्वनिर्धारित सिद्धान्तों को व्यवहार में लाया जाता है। व्यवस्था के विषय में ओलिवर शेल्डन का यह कथन उल्लेखनीय है, “सामान्य रूप से नीति-निर्धारण, उसको कार्यान्वित करना, संगठन निर्माण तथा उसका उपयोग व्यवस्था या प्रबन्ध के अन्तर्गत आ जाते हैं।” स्पष्ट है कि किसी भी क्षेत्र में कार्य करने के लिए पहले उससे सम्बन्धित नीति को निर्धारित किया जाता है। फिर निर्धारित नीति को कार्य रूप में लागू किया जाता है। इसी प्रकार डेविस महोदय ने व्यवस्था के अर्थ को इन शब्दों में स्पष्ट किया है, ”व्यवस्था कार्यकारी नेतृत्व का कार्य है। यह मुख्यतः एक मानसिक क्रिया है। यह कार्य के नियोजन, संगठन तथा सामूहिक उद्देश्य की पूर्ति के लिए अन्य व्यक्तियों के कार्यों के नियन्त्रण से सम्बन्धित है।”
व्यवस्था के अर्थ को समझ लेने के उपरान्त ‘गृह-व्यवस्था के अर्थ को भी स्पष्ट किया जा सकती है। हम कह सकते हैं कि घर से समस्त कार्यों को उत्तम ढंग से करने तथा निश्चित (उपलब्ध) साधनों से अधिक-से-अधिक सफलता प्राप्त करने की कला ही “गृह-व्यवस्था” है। गृह-व्यवस्था के अर्थ को स्पष्ट करने के लिए विभिन्न विद्वानों द्वारा प्रतिपादित कुछ परिभाषाएँ निम्नलिखित हैं
(1) ग्रोस तथा क्रेण्डल के विचार:
आधुनिक परिवारों के संगठन को ध्यान में रखते हुए ग्रोस तथा क्रेण्डल ने गृह-व्यवस्था को इन शब्दों में परिभाषित किया है, “गृह-व्यवस्था निर्णयों की ऐसी श्रृंखला है जो पारिवारिक साधनों को पारिवारिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रयोग करने की प्रक्रिया प्रस्तुत करती है। इस प्रक्रिया में न्यूनाधिक तीन सतत् पग हैं
(i) नियोजन
(ii) नियोजन को क्रियान्वित करते समय इसके विभिन्न तत्त्वों का नियन्त्रण चाहे कार्य स्वयं किए गए हों अथवा दूसरों के द्वारा और
(iii) परिणामों का मूल्यांकन जो भावी नियोजन के लिए प्रारम्भिक कदम होगा।” इस प्रकार परिवार के लिए जो भी साधन उपलब्ध हों उनका सदुपयोग करने के लिए निर्णय लेना तथा वास्तव में इनका सदुपयोग करना गृह-प्रबन्ध के ही अन्तर्गत आता है। वैसे भी कहा जा सकता है कि गृह-प्रबन्ध वह योजना है, जिसे परिवार के उपलब्ध साधनों को ध्यान में रखकर अधिकतम लाभ के लिए सूक्ष्मता एवं कुशलता से बनाया एवं लागू किया जाता है। गृह-व्यवस्था के अन्तर्गत व्यवस्थित ज्ञान द्वारा परिवार की समस्याओं के समाधान तथा आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए उपलब्ध साधनों द्वारा प्रयास किया जाता है।
(2) निकिल तथा डारसी का मत:
निकिल तथा डारसी ने गृह-व्यवस्था का अर्थ इन शब्दों में प्रस्तुत किया है, “गृह-व्यवस्था के अन्तर्गत परिवार के साधनों का नियोजन, नियन्त्रण तथा मूल्यांकन आता है जिनके द्वारा पारिवारिक उद्देश्यों की प्राप्ति की जाती है।” गृह-प्रबन्ध समिति ने अपनी एक विज्ञप्ति में गृह-व्यवस्था का अर्थ इन शब्दों में प्रस्तुत किया है, गृह-व्यवस्था निर्णय करने की क्रियाओं की एक ऐसी श्रृंखला है, जिसमें पारिवारिक लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए साधनों के प्रयोग की प्रक्रिया आती हैं। यह एक मुख्य साधन है जिसके द्वारा परिवार अपने सम्पूर्ण पारिवारिक जीवन-चक्र में जो कुछ चाहते हैं, पारिवारिक साधनों का प्रयोग करके प्राप्त करते हैं। गृह-व्यवस्था पारिवारिक जीवन के सूत्र का एक अंग है। इसके सूत्र अन्त:सम्बन्धित होते हैं, क्योंकि साधनों के प्रयोग का निर्णय लिया जाता है, चाहे परिवार कार्य में संलग्न हो अथवा खेल में।” प्रस्तुत कथन द्वारा स्पष्ट है कि परिवार के विभिन्न लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए समय-समय पर उचित निर्णय लेना तथा उनके अनुसार कार्य करना गृह-व्यवस्था के अन्तर्गत आता है। एक अच्छे गृह-प्रबन्धक या गृह-व्यवस्थापक में यह योग्यता होती है कि वह घर-परिवार से सम्बन्धित कोई भी समस्या आ जाने पर उसका कुशलतापूर्वक समाधान कर लेता है।
उपर्युक्त विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि गृह-व्यवस्था के तीन मुख्य अंग हैं। ये अंग या मूल तत्त्वे हैं
⦁ (i) नियोजन (Planning)
⦁ (ii) नियन्त्रण (Controlling) तथा
⦁ (iii) मूल्यांकन (Evaluating)
इन तीनों तत्त्वों के सुन्दर समन्वय से गृह-व्यवस्था की प्रक्रिया सुचारु रूप से चलती है। ये तीनों तत्त्व आपस में सम्बद्ध होते हैं। इन तीनों तत्त्वों द्वारा ही परिवार के मुख्य उद्देश्यों को प्राप्त करना होता है। अब प्रश्न उठता है कि गृह-व्यवस्था के मूल उद्देश्य क्या हैं? साधारण रूप से चले आ रहे पारम्परिक जीवन में अनुकूल परिवर्तन लाना ही गृह-व्यवस्था या गृह-प्रबन्ध का मूल उद्देश्य है। इसके लिए वर्तमान परिस्थितियों पर नियन्त्रण रखना अनिवार्य है; परन्तु वास्तविकता यह है कि परिस्थितियाँ निरन्तर बदलती रहती हैं तथा व्यक्ति की आवश्यकताओं में वृद्धि होती रहती है। ऐसी गतिशील परिस्थितियों में सामंजस्य स्थापित करना एवं उद्देश्यों को पूरा करना ही गृह-व्यवस्था है। गृह-व्यवस्था के लिए स्पष्ट योजना बनानी होती है तथा इस योजना को नियन्त्रित रूप से लागू करना भी अनिवार्य है। नियन्त्रित रूप से योजना को परिचालित करने के साथ-साथ मूल्यांकन अर्थात् योजना के परिणामों का ज्ञान भी अनिवार्य है। इस प्रकार इन तीनों प्रक्रियाओं अर्थात् नियोजन, नियन्त्रण तथा मूल्यांकन द्वारा गृह-व्यवस्था को सफल बनाया जा सकता है।