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निबन्ध : यात्रा का वर्णन

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रूपरेखा- यात्रा की तैयारियाँ और आरम्भ, स्टेशन के टिकटघर और प्लेटफार्म का दृश्य, गाड़ी का आगमन, मार्ग के दृश्यों का वर्णन, स्टेशनों का आना में भीड़ को उतरना-चढ़ना, दिल्ली के स्टेशन का वर्णन, मेरे अनुभव, उपसंहार।

इस वर्ष 10 मई को हमारे विद्यालय की वार्षिक परीक्षाएँ समाप्त हुई। 14 मई को मेरे मामा जी का दिल्ली से पत्र आया। उन्होंने मेरे लिए लिखा था कि परीक्षा समाप्त होते ही तुम दिल्ली आ जाओ। मुझे पत्र पढ़कर बहुत प्रसन्नता हुई। मैंने पिता जी से दिल्ली चलने का आग्रह किया, वे भी राजी हो गए और हमने 21 मई को दिल्ली चलने का निश्चय कर लिया। 18 मई से ही मैंने तो अपने कपड़े और सामान इकट्ठा करना प्रारम्भ कर दिया और 21 मई को सुबह 8 बजे हम लोग अपने नगर हापुड़ के रेलवे स्टेशन पर जा पहुँचे।

रेलवे स्टेशन के बाहर ही टिकट घर बना हुआ था। वहाँ पर टिकट खरीदने वाले यात्रियों की लम्बी पंक्ति बनी हुई थी। मेरे पिता जी उस पंक्ति में पीछे जा खड़े हुए। थोड़ी देर में उन्हें भी टिकट मिल गया और हम लोग प्लेटफॉर्म पर आ गए, यहाँ पर बड़ी भीड़ थी। कुछ लोग इधर से उधर घूम रहे थे। कुछ अपने सामान के साथ बैठे हुए थे और कुछ चाट-पकौड़ी खा रहे थे। खौंमचे वाले, पापड़ वाले, बर्फ वाले और सिगरेट-पान वाले इधर-से-उधर आ जा रहे थे। इतने में टन-टन की घण्टी बजी और थोड़ी देर बाद धड़-धड़ाती हुई ट्रेन स्टेशन पर आकर रुक गई। ट्रेन में पहले ही हजारों यात्री बैठे हुए थे। ट्रेन के रुकते ही सैकड़ों यात्री उतर पड़े और सैकड़ों ही उसमें बैठ गए। हम भी एक डिब्बे में जाकर बैठ गए।

थोड़ी देर बाद गाड़ी चल दी। गर्मी के दिन थे। सुबह की ठण्डी-ठण्डी हवा बड़ी अच्छी लग रही थी। दूर तक चारों ओर खेत साफ दिखाई देने लगे थे। जगह-जगह पर कटे हुए अन्न के ढेर लगे हुए थे। कहीं-कहीं किसान अनाज को काटते भी मिले। कोई बीस मिनट के बाद ही गाड़ी पिलखुआ के स्टेशन पर आकर रुक गई। यहाँ पर अनेक यात्री उतरे और चढे। पिलखुआ एक छोटा-सा स्टेशन है। यहाँ तीन मिनट रुकने के बाद गाड़ी फिर छुक-छुक करती हुई आगे चली। यहाँ से एक सामान नीलाम करने वाला व्यक्ति भी हमारे डिब्बे में आ गया। उसने नए-नए ताले, टार्च, कैंची आदि नीलामी की और खूब सामान बेचा। इतने में ही गाजियाबाद आ गया। यहाँ का स्टेशन बहुत बड़ा था। गाड़ी रुकते ही पान, बीड़ी, सिगरेट, हलवा, पूड़ी आइसक्रीम और चाय बेचने वाले आ गए। यहाँ स्टेशन पर यात्रियों की बड़ी भीड़ थी। दिल्ली को जाने वाले हजारों यात्री खड़े हुए थे। ट्रेन के रुकते ही यात्री डिब्बे की ओर झपट पड़े, बड़ी धक्का-मुक्की हुई। हमारे डिब्बे में तो एक साथ इतने यात्री आ गए कि उसमें पाँव रखने की भी जगह नहीं रही। कोई पाँच मिनट बाद गाड़ी यहाँ से चल दी और हम सबने चैन की साँस ली।

धीरे-धीरे हम दिल्ली की ओर बढ़े। शाहदरा आया और हमारी गांड़ी आगे बढ़ती गई। यमुना जी के पुल के आते ही सभी का ध्यान उस ओर चला गया। यह पुल बहुत ही बड़ा है। नीचे यमुना-जल बह रहा था। उसके बीच में मोटर, ताँगे और पैदल चलने वालों के लिए पुल बना था तथा उसके ऊपर से हमारी ट्रेन धड़-धड़ाती हुई चली आ रही थी।

इस समय लगभग 10 बज चुके थे, गर्मी काफी हो गई थी। उधर डिब्बे में यात्रियों की भीड़ बहुत थी। मेरा मन दिल्ली देखने के लिए उतावला हो रहा था कि पिता जी कहने लगे कि सामान सँभालो, स्टेशन आने वाला है। हमने अपना सामान सँभाला और गाड़ी स्टेशन पर आकर रुक गई। यात्रियों की भीड़ गाड़ी में से उतर पड़ी। पिता जी ने तुरन्त ही कुली को आवाज दी। शीघ्र ही एक कुली आ गया। उसने हमारा सभी सामान डिब्बे से उतारा और स्टेशन के बाहर तक पहुँचा दिया। वहाँ जाकर हमने एक ताँगा किराए पर लिया और मार्ग के दृश्यों को देखते हुए अपने मामा जी के घर पहुँच गए यह मेरी प्रथम रेल यात्रा थी जिसे मैं कभी नहीं भूल सकता।

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