प्रो. रॉबिन्स ने अर्थशास्त्र को न तो धन का विज्ञान ही माना, न ही मानव कल्याण का शास्त्र । उन्होंने तो मनुष्य की असीमित आवश्यकताओं का सीमित साधनों से सम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया है । उनकी पुस्तक ‘An Essay in to The Nature and Significance of Economic Science’ सन् 1932 . में निम्नलिखित परिभाषा के द्वारा अर्थशास्त्र को प्रस्तुत किया । परिभाषा :
“अर्थशास्त्र वह विज्ञान है, जिसमें साध्यों तथा उनमें सीमित एवं वैकल्पिक उपयोगोंवाले साधनों के परस्पर सम्बन्धों के रूप में मानव व्यवहार का अध्ययन किया जाता है ।”
प्रो. रॉबिन्स के अनुसार अर्थशास्त्र प्रत्येक क्रिया के आर्थिक पक्ष का अध्ययन करता है । उनकी परिभाषा अर्थशास्त्र को आर्थिक- . अनार्थिक क्रियाओं, भौतिक-अभौतिक कल्याण आदि के बन्धन से मुक्त करती है । उन्होंने सामाजिक व्यवहार के स्थान पर मानव व्यवहार को अर्थशास्त्र का क्षेत्र बताया है । उनके मतानुसार आर्थिक समस्या का जन्म साधनों की दुर्लभता के कारण हुआ है । मनुष्य की सभी आवश्यकताएँ एकसमान महत्त्व की नहीं है ।
जब आवश्यकताएँ एकसमान नहीं होती तब उनकी पसंदगी की समस्या उत्पन्न होती है । तब मनुष्य उन्हें महत्त्व का क्रम देकर उनकी संतुष्टि करता है । वे बृह्यलक्षी अर्थशास्त्र की उपेक्षा करते हैं । वे उत्पादन और उसके वितरण पर अधिक जोर देते हैं । मनुष्य असीमित आवश्यकताओं की संतुष्टि सीमित साधनों के माध्यम से किस प्रकार तर्कबद्ध रूप से कर सकता है, उसका ज्ञान दिया गया है ।
फिर भी उनकी इस परिभाषा के अनुसार अर्थशास्त्र उद्देश्यों के प्रति पूर्णतः तटस्थ नहीं है । मानव व्यवहार को ‘निर्णय’ से सर्वथा मुक्त नहीं किया जा सकता है । उन्होंने केवल निगमन प्रणाली का प्रयोग ही बताया है ।