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भारत में वर्षा का वार्षिक वितरण कैसा है ?

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भारत में 118 सें०मी० औसत वार्षिक वर्षा होती है। परन्तु देश में वर्षा का वितरण बहुत ही असमान है। मेघालय की पहाड़ियों में 1000 सेंटीमीटर से भी अधिक वर्षा होती है जबकि थार मरुस्थल में एक वर्ष में केवल 20 सें०मी० से भी कम वर्षा होती है। वार्षिक वर्षा की मात्रा के आधार पर देश को निम्नलिखित पांच क्षेत्रों में बांटा जा सकता है

  1. भारी वर्षा वाले क्षेत्र-
    • दादरा तथा नगर हवेली से लेकर दक्षिण में तिरुवन्तपुरम् तक फैली लम्बी और तंग पट्टी में पश्चिमी घाट की पश्चिमी ढलान तथा पश्चिमी तटीय क्षेत्र सम्मिलित हैं। यहां के कोंकण तथा मालाबार के तटों पर लगातार पांच महीने वर्षा होती रहती है।
    • भारी वर्षा का दूसरा क्षेत्र देश के उत्तर-पूर्वी भाग में है। इसमें दार्जिलिंग, बंगाल द्वार, असम की मध्यवर्ती तथा निम्नवर्ती घाटियां, दक्षिणी अरुणाचल प्रदेश और मेघालय के पर्वतीय भाग सम्मिलित हैं। शिलांग के पठार तथा बंगलादेश की ओर वाली ढलानों पर अत्यधिक वर्षा होती है। यहां चेरापूंजी में 1087 सेंटीमीटर और इसी के पास स्थित माउसिनराम में 1141 सेंटीमीटर वर्षा होती है जो विश्व की सबसे अधिक वर्षा है।
    • अण्डमान तथा निकोबार द्वीप समूह तथा लक्षद्वीप आदि क्षेत्र भी भारी वर्षा वाले क्षेत्रों में आते हैं।
  2. अधिक वर्षा वाले क्षेत्र-इन क्षेत्रों में निम्नलिखित क्षेत्र सम्मिलित हैं-
    • पश्चिमी घाट के साथ-साथ उत्तर-दक्षिण दिशा में ताप्ती नदी के मुहाने से केरल के मैदानों तक फैली हुई पट्टी।
    • दूसरी पट्टी हिमालय की दक्षिणी ढलानों के साथ-साथ हिमाचल प्रदेश से होकर कुमाऊं हिमालय से गुज़रती हुई असम की निचली घाटी तक पहुंचती है।
    • तीसरी पट्टी उत्तर-दक्षिण दिशा में फैली हुई है। इसमें त्रिपुरा, मणिपुर, मीकिर की पहाड़ियां आती हैं।
  3. मध्यम वर्षा वाले क्षेत्र-इन क्षेत्रों में 100 से 150 सेंटीमीटर तक की वार्षिक वर्षा होती है। देश में मध्यम वर्षा वाले तीन क्षेत्र मिलते हैं।
    • इसका सबसे बड़ा क्षेत्र उड़ीसा, उत्तरी आन्ध्र प्रदेश, मध्य प्रदेश, झारखण्ड, पूर्वी उत्तर प्रदेश तथा शिवालिक की पहाड़ियों के साथ-साथ तंग पट्टी के रूप में जम्मू की पहाड़ियों तक फैला हुआ है।
    • दूसरी पट्टी पूर्वी तट से 80 किलोमीटर की चौड़ाई में फैली हुई है। इसे कोरोमण्डल तट भी कहते हैं।
    • तीसरी पट्टी का विस्तार पश्चिमी घाट की पूर्वी ढलानों में नर्मदा नदी के मुहाने से लेकर कन्याकुमारी तक है।
  4. कम वर्षा वाले क्षेत्र-इस श्रेणी में देश के वे अर्ध-शुष्क क्षेत्र सम्मिलित हैं, जहां पर पूरे वर्ष में औसतन 50 से 100 सेंटीमीटर तक वर्षा होती है। इस क्षेत्र का विस्तार उत्तर में जम्मू के साथ लगी हुई देश की सीमा से लेकर सुदूर दक्षिण में कन्याकुमारी तक है।
  5. बहुत कम वर्षा वाले क्षेत्र-इन शुष्क क्षेत्रों में 50 सेंटीमीटर से भी कम वर्षा होती है। ऐसे क्षेत्रों में से जस्कर पर्वत श्रेणी के पीछे स्थित लद्दाख से कराकोरम तक का क्षेत्र, कच्छ तथा पश्चिमी राजस्थान का क्षेत्र और पंजाब तथा हरियाणा राज्यों के दक्षिणी-पश्चिमी क्षेत्र शामिल हैं। इन क्षेत्रों में पश्चिमी घाट की पूर्वी ढलानें भी सम्मिलित हैं।
  • जलवायु – किसी भी स्थान के लंबे समय के मौसम की औसत | निकाल कर जो परिणाम निकाला जाता है उस परिणाम को | उस स्थान की जलवायु कहते हैं। भारत में जलवायु की अलग-अलग परिस्थितियां पाई जाती हैं।
  • जलवायु को प्रभावित करने वाले तत्त्व – किसी भी स्थान की जलवायु को कई कारक प्रभावित करते हैं; जैसे कि भूमध्य रेखा से दूरी, समुद्र से दूरी, समुद्री तल से ऊंचाई, धरातल का स्वरूप, जेट स्ट्रीम | इत्यादि। हमारे देश की भौगोलिक संरचना ने देश की जलवायु को एक जैसा ही बना दिया है।
  • वर्षा – नमी भरी हवा ऊपर उठती है तथा ऊँचाई पर जाकर ठंडी हो जाती है। ठंडी होने के कारण यह नमी को संभालकर नहीं रख सकती तथा पानी के कण बादलों का रूप ले लेते हैं। जब बादलों में से यह पानी के कण पृथ्वी पर गिरते हैं तो इसे वर्षा करते हैं। वर्षा तीन प्रकार की होती है-संवहनी वर्षा, पर्वतीय वर्षा तथा चक्रवाती वर्षा।
  • मानसून का अर्थ – ‘मानसून’ शब्द की व्युत्पत्ति अरबी भाषा के ‘मौसिम’ शब्द से हुई है। इसका शाब्दिक अर्थ है-ऋतु। इस प्रकार मानसून से अभिप्राय एक ऐसी ऋतु से है जिसमें पवनों की दिशा पूरी तरह उलट जाती है।
  • मानसून प्रणाली – मानसून की रचना उत्तरी गोलार्द्ध में प्रशान्त महासागर तथा हिन्द महासागर के दक्षिणी भाग पर वायुदाब की विपरीत स्थिति के कारण होती है। वायुदाब की यह स्थिति परिवर्तित होती रहती है। इस कारण विभिन्न ऋतुओं में विषुवत् वृत्त के आर-पार पवनों की स्थिति बदल जाती है। इस प्रक्रिया को दक्षिणी दोलन कहते हैं। इसके अतिरिक्त जेट वायुधाराएं भी मानसून के रचनातन्त्र में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं।
  • भारत की ऋतुएं – भारत के वार्षिक ऋतु चक्र में चार प्रमुख ऋतुएं होती हैंशीत ऋतु, ग्रीष्म ऋतु, आगे बढ़ते मानसून की ऋतु तथा पीछे हटते मानसून की ऋतु।
  • शीत ऋतु – लगभग सारे देश में दिसम्बर से फरवरी तक शीत ऋतु होती है। इस ऋतु में देश के ऊपर उत्तर-पूर्वी व्यापारिक पवनें चलती हैं। इस ऋतु में दक्षिण से उत्तर की ओर जाने पर तापमान घटता | जाता है। कुछ ऊँचे स्थानों पर पाला भी पड़ता है। शीत ऋतु से चलने वाली उत्तरी पूर्वी पवनों द्वारा केवल तमिलनाडु राज्य को लाभ पहुंचता है। ये पवनें खाड़ी बंगाल से गुजरने के बाद वहां पर्याप्त वर्षा करती हैं।
  • ग्रीष्म ऋतु – यह ऋतु मार्च से मई तक रहती है। मार्च मास में सबसे | अधिक तापमान (लगभग 38° सें०) दक्कन के पठार पर होता है। धीरे-धीरे ऊष्मा की यह पेटी उत्तर की ओर खिसकने लगती है और उत्तरी भाग में तापमान बढ़ता जाता है। मई के अन्त तक एक लम्बा संकरा निम्न वायु दाब क्षेत्र विकसित हो जाता है, जिसे ‘मानसून का निम्न वायुदाब गर्त’ कहते हैं। देश के उत्तर-पश्चिमी भाग में चलने वाली | गर्म-शुष्क पवनें (लू), केरल तथा कर्नाटक के तटीय भागों में होने वाली ‘आम्रवृष्टि’ और बंगाल तथा असम की ‘काल बैसाखी’ ग्रीष्म ऋतु की अन्य मुख्य विशेषताएं हैं।
  • आगे बढ़ते मानसून की ऋतु – यह ऋतु जून से सितम्बर तक रहती है। देश में दक्षिणपश्चिमी मानसून चलती है जो दो शाखाओं में भारत में प्रवेश करती है-अरब सागर की शाखा तथा बंगाल की
    खाड़ी की शाखा। ये पवनें देश में पर्याप्त वर्षा करती हैं। | उत्तर-पूर्वी भारत में भारी वर्षा होती है, जबकि देश के उत्तरी-पश्चिमी कुछ भाग शुष्क रह जाते हैं। जुलाई तथा अगस्त के महीनों में देश की 75 से 90 प्रतिशत तक वार्षिक वर्षा हो जाती है। गारो तथा खासी की पहाड़ियों की दक्षिणी श्रेणी के शीर्ष पर स्थित माउसिनराम में संसार भर में सबसे अधिक वर्षा होती है। दूसरा स्थान यहां से कुछ ही दूरी पर स्थित चेरापूंजी को प्राप्त है। दक्षिणी भारत में पश्चिमी घाट की पवनाभिमुख ढालों पर अरब सागर की मानसून शाखा द्वारा भारी वर्षा होती है।
  • पीछे हटते मानसून की ऋतु – अक्तूबर तथा नवम्बर के महीनों में मानसून पीछे हटने लगता है। क्षीण हो जाने के कारण इसका प्रभाव कम हो जाता है। पृष्ठीय पवनों की दिशा भी उलटने लगती है। आकाश साफ़ हो जाता है और तापमान फिर से बढ़ने लगता है। उच्च तापमान तथा भूमि की आर्द्रता के कारण मौसम कष्टदायक हो जाता है। इसे ‘क्वार की उमस’ कहते हैं। इस ऋतु में दक्षिणी प्रायद्वीप के तटों पर उष्ण कटिबन्धीय चक्रवात भारी वर्षा करते हैं। इस प्रकार ये बहुत ही विनाशकारी सिद्ध होते हैं।
  • वर्षा का वितरण – भारत में सबसे अधिक वर्षा पश्चिमी तटों तथा उत्तरी पूर्वी | भागों में होती (300 सें० मी० से भी अधिक) है। परन्तु पश्चिमी राजस्थान तथा इसके निकटवर्ती पंजाब, हरियाणा तथा गुजरात के क्षेत्रों में 50 सें० मी० से भी कम वार्षिक वर्षा होती है। देश के उच्च भागों (हिमालय क्षेत्र) में हिमपात होता है। वर्षण की यह मात्रा प्रति वर्ष घटती बढ़ती रहती है। मानसून की स्वेच्छाचारिता के कारण कहीं तो भयंकर बाढ़ें आ जाती हैं और कहीं सूखा पड़ जाता है।
  • जलवायु के यन्त्र – जलवायु का अनुमान लगाने के लिए कई प्रकार में यन्त्रों | का प्रयोग किया जाता है। जैसे कि थर्मामीटर एनीराइड बैरोमीटर, सूखी तथा गीली गोली का थर्मामीटर, वर्षा मापक यन्त्र, वायुवेग मापक, वायु दिशा सूचक इत्यादि।
  • प्राकृतिक आपदाएं – प्रकृति के ऊपर किसी का ज़ोर नहीं चलता। इस प्रकार जब प्राकृतिक आपदाएं आती हैं तो काफी जान-माल का नुकसान होता है। सुनामी भी इन प्राकृतिक आपदाओं में से एक थी जो दिसंबर 2004 में दक्षिण एशिया के देशों में आई तथा हज़ारों लोगों की मृत्यु हो गई थी।

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