ऊन प्राप्ति के लिए भेड़ों को पाला जाता है। उनकी रोएँदार त्वचा काटी जाती है और ऊन तैयार की जाती है।
इस प्रक्रम के दो चरण हैं-
(i) भेड़ को पालना
(ii) ऊन का संसाधन।
(i) भेड़ को पालना – भारत के कई भागों में भेड़ें पाली जाती हैं। चरवाहे अपनी भेड़ों को खेतों में चराते हैं और उन्हें हरे चारे के अतिरिक्त मक्का, ज्वार, खली खिलाते हैं।
जब पाली गई भेड़ों के शरीर पर बालों की घनी वृद्धि हो जाती है तो उनके बालों को काट लिया जाता है।
(ii) ऊन का संसाधन – स्वेटर या शाल बनाने के लिए उपयोग आने वाली ऊन एक लंबी प्रक्रिया के बाद प्राप्त होती है, जिसके स्टैप निम्नलिखित हैं-
स्टैप 1. भेड़ के वालों को चमड़ी की पतली पर्त के साथ शरीर से उतार लिया जाता है। (चित्र (a)) यह प्रक्रिया ऊन की कटाई कहलाती है। भेड़ के वाल उतारने के लिए मशीन का प्रयोग किया जाता है जो बारबर द्वारा वाल काटने के लिए प्रयोग की जाती है। आमतौर पर वालों को गर्मी के मौसम में उतारा जाता है। इन रेशों को संसाधित करके धागा बनाया जाता है।
स्टैप 2. चमड़ी से उतारे गए वालों को टैंकियों में डालकर धोया जाता है। जिससे उनकी चिकनाई, धूल तथा मिट्टी निकल जाए। यह विधि अभिमार्जन कहलाती है। आजकल यह काम मशीनों से लिया जाता है।

स्टैप 3. अभिमार्जन के बाद छंटाई की जाती है। रोमिल तथा लूंदार वालों को कारखानों में भेज कर अलग-अलग गठन वाले वालों को अलग-अलग किया जाता है।
स्टैप 4. वालों में से कोमल तथा फूले हुए रेशों को चुन लिया जाता है। जिनकों ‘बर’ कहते हैं। उसके बाद दोबारा रेशों को अभिमार्जन करके सुखा लिया जाता है। अब यह ऊन धागों के रूप में अनुकूल है।
स्टैप 5. अब रेशों की भिन्न-भिन्न रंग में रंगाई की जाती है।
स्टैप 6. अब रेशों को सीधा करके सुलझाया जाता है फिर लपेट के धागा बनाया जाता है। (चित्र (d)) लंबे रेशों को कात के स्वेटरों के लिए ऊन तथा छोटे रेशों को कात के ऊनी कपड़ा तैयार किया जाता है।