स्वतंत्र भारत का जन्म अत्यन्त कठिन र परिस्थितियों में हुआ। प्रमुख रूप से स्वतंत्रता प्राप्ति के समय भारत के सामने तीन तरह की चुनौतियाँ थीं।
इनका उल्लेख निम्नानुसार है-
(i) देश की क्षेत्रीय अखण्डता को कायम रखने की चुनौती: आजादी के तुरन्त बाद देश की क्षेत्रीय अखण्डता को कायम रखने की चुनौती सबसे प्रमुख थी। एकता के सूत्र में बंधे एक ऐसे भारत को गढ़ने की चुनौती थी जिसमें भारतीय समाज की समस्त विविधताओं के लिए जगह हो। भारत अपने आकार व विविधता के कारण एक उपमहाद्वीप है। यहाँ विभिन्न धर्म जातियों, वर्गों, भाषाओं, बोलियों, संस्कृति को मानने वाले लोग निवास करते हैं। अतः यही माना जा रहा था कि इतनी विभिन्नताओं से भरा कोई देश अधिक दिनों तक एकता कायम नहीं रख सकता। वैसे भी देश को आजादी विभाजन की शर्त पर ही मिल सकी। ऐसे में राष्ट्रीय एकता के सूत्र में बँधे राष्ट्र की स्थापना व निर्माण करना एक गम्भीर चुनौतीपूर्ण कार्य था। ऐसे में हर क्षेत्रीय और उप-क्षेत्रीय पहचान के साथ ही देश की एकता व अखण्डता को भी कायम रखना था।
उस वक्त आमतौर पर यही माना जाता था कि इतनी विभिन्नताओं वाला देश लम्बे समय तक एकता के सूत्र में बँधा नहीं रह पाएगा। देश के विभाजन के साथ लोगों के मन में समाई यह आशंका एक तरह से सत्य सिद्ध हुई। देश के भविष्य के सम्बन्ध में अनेक गम्भीर प्रश्न सामने खड़े थे, जैसे-क्या भारत एकता के सूत्र में बँधा रह सकेगा? क्या भारत केवल राष्ट्रीय एकता पर ही सर्वाधिक ध्यान देगा या अन्य उद्देश्यों को भी पूर्ण करेगा? इस प्रकार स्वतंत्रता के बाद तात्कालिक प्रश्न देश की क्षेत्रीय अखण्डता को कायम रखने की चुनौती का था।
(ii) लोकतांत्रिक व्यवस्था को कायम करना: दूसरी चुनौती लोकतांत्रिक व्यवस्था को सफलतापूर्वक लागू रखने की थी। भारत ने संसदीय शासन पर आधारित प्रतिनिधित्व मूलक लोकतंत्र को अपनाया। भारतीय संविधान भारत की आन्तरिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक शक्तियों के पारस्परिक सम्बन्धों की वैधानिक अभिव्यक्ति है। संविधान में मौलिक अधिकारों की व्यवस्था की गयी है तथा प्रत्येक नागरिक को मतदान का अधिकार भी दिया गया है। इन विशेषताओं स आधार पर यह बात सुनिश्चित हो गई कि लोकतांत्रिक शासन-व्यवस्था के बीच राजनीतिक मुकाबले होंगे। लोकतंत्र को कायम करने के लिए लोकतांत्रिक संविधान आवश्यक होता है परन्तु यह भी काफी नहीं होता। देश के सामने यह चुनौती भी थी कि संविधान पर आधारित लोकतांत्रिक व्यवहार व व्यवस्थाएँ भी चलन में आएँ ताकि लोकतंत्र कायम रह सके।
(iii) आर्थिक विकास हेतु नीति निर्धारित करना : स्वतंत्रता के तुरन्त बाद तीसरी प्रमुख चुनौती थी-आर्थिक विकास हेतु नीतियों का निर्धारण करना। इन नीतियों के आधार पर सम्पूर्ण समाज का विकास होना था, किन्हीं विशेष वर्गों का नहीं। संविधान में भी इस बात का स्पष्ट तौर पर उल्लेख था कि समाज में सभी वर्गों के साथ समानता का व्यवहार किया जाए तथा सामाजिक रूप से वंचित व पिछड़े वर्गों तथा धार्मिक-सांस्कृतिक अल्पसंख्यकों को विशेष सुरक्षा प्रदान की जाए। संविधान में ‘नीति-निदेशक सिद्धान्तों’ का भी प्रावधान किया गया है जिनका प्रमुख उद्देश्य लोक-कल्याण व सामाजिक विकास था।
सरकार को नीति निर्धारित करते समय इन सिद्धान्तों को अवश्य अपनाना चाहिए। अतः देश के सामने मुख्य चुनौती आर्थिक विकास करने हेतु कारगर नीतियों के निर्धारण की थी। इस चुनौती का भी सफलतापूर्वक सामना हमारे नीति-निर्माताओं ने किया। भारतीय संविधान के द्वारा भारत में एक लोककल्याणकारी राज्य की स्थापना किए जाने की व्यवस्था की गयी। इसी व्यवस्था के अन्तर्गत भारतीयों को अवसर की समानता तथा अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रदान की गयी। सरकार से यह भी अपेक्षा की गयी कि वह अपंगों, वृद्धों व बीमार व्यक्तियों की उचित सहायता करे।