संदर्भ प्रस्तुत गद्यावतरण आचार्य रामचंद्र शुक्ल द्वारा लिखे गए संस्मरणात्मक निबंध ‘प्रेमघन की छाया – स्मृति’ से लिया गया है। इसे हमारी पाठ्य – पुस्तक ‘अंतरा भाग – 2’ में संकलित किया गया है।
प्रसंग – चौधरी बदरीनारायण ‘प्रेमघन’ जी संपन्न परिवार से थे। उनके रहन – सहन तथा बोलचाल से उनकी रईसी का पता चलता था।
व्याख्या – उपाध्याय बदरीनारायण चौधरी ‘प्रेमघन’ जी एक अच्छे – खासे हिन्दुस्तानी रईस थे अतः उनमें वे सब विशेषताएँ होनी स्वाभाविक थीं जो तत्कालीन रईसों (धनी – मानी व्यक्तियों) में पाई जाती थीं। वसंत पंचमी और होली के अवसर पर उनके यहाँ नाच – रंग की महफिलें सजती और पर्याप्त खर्च करके मनोरंजन किया जाता था। उनकी हर भावभंगिमा से उनकी रईसी आदतें व्यक्त होती थीं।
वे तबियत से खर्च करते और लोगों के साथ महफिलों का लुत्फ (आनंद) उठाते थे। उनकी सज – धज भी आकर्षक होती थी। बड़े – बड़े बाल जो कंधों पर लटकते रहते उन्हें अलग पहचान देते थे। जब कभी वे बरामदे में इधर से उधर चहलकदमी कर रहे होते तो एक लड़का पान की तश्तरी लिए उनके पीछे – पीछे चलता। कब बाबू साहब को पान की तलब लगे और वह तश्तरी उनके सामने पेश करे।
बातचीत करने में वे बड़े विदग्ध (चतुर) थे और ऐसी बातें करते कि लोग मुग्ध हो जाते। उनकी वचन वक्रता विलक्षण थी। उनकी बातचीत का ढंग उनके लेखों के ढंग से नितांत भिन्न था। नौकरों से भी वे जो बातें करते वे सुनने लायक होती थीं। अगर किसी नौकर से कोई गिलास गिरा तो उनके मुंह से निकलता “कारे बचा त नाहीं” अर्थात् क्यों रे फूटने से बचा तो नहीं।