ऊपर लिखे समूहों में से निम्न तीन समूहों के असहयोग आन्दोलन में सम्मिलित होने के कारण-
(i) शहरी मध्यम वर्ग का समूह- भारत के शहरी मध्यम वर्ग ने महात्मा गाँधी के स्वराज के आह्वान को स्वीकार कर लिया था। हजारों की संख्या में विद्यार्थियों ने विद्यालयमहाविद्यालय छोड़ दिए, प्रधानाध्यापकों एवं अध्यापकों ने अपने पद से त्यागपत्र दे दिये तथा वकीलों ने मुकदमे लड़ना बन्द कर दिया। मद्रास (वर्तमान चेन्नई) के अतिरिक्त अधिकांश प्रान्तों में परिषद चनावों का बहिष्कार किया गया। मद्रास में गैर-ब्राह्मणों द्वारा बनाई गई जस्टिस पार्टी का मत था कि काउंसिल में प्रवेश के माध्यम से उन्हें वे अधिकार मिल सकते हैं जो सामान्य रूप से केवल ब्राह्मणों को मिल पाते हैं। इसलिए इस पार्टी ने चुनावों का बहिष्कार नहीं किया। आन्दोलन की शुरुआत शहरी मध्यम वर्ग की हिस्सेदारी से हुई जिसमें अध्यापक, वकील, व्यापारी आदि ब्रिटिश शासन के विरुद्ध असहयोग आन्दोलन में सम्मिलित हो गए।
(ii) वन क्षेत्रों के आदिवासी समूह- आन्ध्र प्रदेश के आदिवासी औपनिवेशिक सरकार की वन नीति से बहुत अधिक परेशान थे। अन्य वन क्षेत्रों की तरह यहाँ भी अंग्रेजी सरकार ने बड़े-बड़े जंगलों में लोगों के प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया था। आदिवासी लोग न तो जंगलों में मवेशी चरा सकते थे और न ही जलाने की लकड़ी व खाने के लिए फल इकट्ठा कर सकते थे, जिससे उनकी रोजी-रोटी पर प्रभाव पड़ रहा था तथा उनको लग रहा था कि उनके परम्परागत अधिकार भी छीने जा रहे हैं। जब अंग्रेज सरकार ने उन्हें सड़कों के निर्माण के लिए बेगार करने पर मजबूर किया तो उन्होंने विद्रोह कर दिया।
(iii) बागानों में काम करने वाले मजदूरों का समूह- महात्मा गाँधी के विचारों एवं स्वराज की आवधारणा के बारे में मजदूरों की अपनी समझ थी। असम के बागानों में कार्य करने वाले मजदूरों के लिए आजादी का अर्थ यह था कि वे उन चारदीवारियों से जब चाहे आ-जा सकते हैं जिसमें वे अब तक कैद थे। उनके लिए आजादी का मतलब था कि वे अपने गाँवों से सम्पर्क रख पायेंगे। जब उन्होंने असहयोग आन्दोलन के बारे में सुना तो हजारों की संख्या में मजदूर अपने अधिकारियों के आदेशों की अवहेलना करने लगे। उन्होंने बागान छोड़ दिए तथा अपने घर को चल दिए। उनको यह लगने लगा कि अब गाँधी राज आ रहा है इसलिए अब सबको गाँव में जमीन मिलेगी। अतः उन्होंने भी असहयोग आन्दोलन में गाँधीजी का साथ दिया।