सन्दर्भ तथा प्रसंग- प्रस्तुत पद महाकवि सूरदास द्वारा रचित, पाठ्यपुस्तक क्षितिज भाग-2 में संकलित, भ्रमर गीत प्रसंग से अवतरित है। इस पद में गोपियों की कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम भावना का मर्मस्पर्शी वर्णन है।
व्याख्या- गोपियाँ कहती हैं- “उद्धव ! आप अपने ज्ञान-उपदेशों के द्वारा हमारे मन को श्रीकृष्ण से विमुख करने की व्यर्थ चेष्टा मत कीजिए, क्योंकि श्रीकृष्ण तो हमारे लिए हारिल पक्षी की लकड़ी के समान हैं। जैसे हारिल अपने पंजों में लकड़ी को हर समय पकड़े रहता है, उसी प्रकार श्रीकृष्ण भी हमारे मन से पलभर को अलग नहीं रहते। हमने मन, वचन और कर्म से नन्द के पुत्र को अपने हृदय में दृढ़तापूर्वक बसा रखा है।
जागते, सोते, सपनों में, दिन और रात में, हमारे मुख से कृष्ण-कृष्ण की ही रट निकलती रहती है। जैसे कड़वी ककड़ी को चखते ही सारा मुँह असहनीय कड़वाहट से भर जाता है उसी प्रकार आपके ये ज्ञानोपदेश हमारे कानों में पड़ते ही हमारे हृदय को कड़वा कर देते हैं। हे उद्धव ! आप हमारे लिए ये कैसा रोग ले आए हैं जिसे हमने न कभी देखा, न सुना और न अनुभव किया है। अपनी इस ज्ञान और योग की सौगात को आप उनको जाकर सौपिए जिनके मन चलायमान रहते हैं।”