भीड़ की विशेषताएँ:
1. सीधा सम्पर्क: भीड़ के सदस्यों में शारीरिक समीपता होती है और वे किसी घटना या वस्तु के चारों ओर एकत्रित होते हैं, अतः उनमें सीधा सम्पर्क पाया जाता है।
2. समानता: भीड़ में ऐसी कोई व्यवस्था नहीं होती है कि व्यक्तियों को उनकी सामाजिक प्रस्थिति के अनुसार पद एवं स्थिति प्रदान की जाए। अतः भीड़ में सभी लोगों के अधिकार समान होते हैं।
3. अनामिकता: भीड़ में कोई भी व्यक्ति सामान्यतः अन्य लोगों के नाम या सामाजिक पद को नहीं जान पाता। यही कारण है कि व्यक्ति भीड़ में निडर होकर ऐसे कार्य भी कर बैठता है जो वह सामान्य दशा में नहीं कर सकता।
4. स्वतः निर्माण: भीड़ का निर्माण योजनाबद्ध रूप से नहीं वरन् स्वतः होता है। भीड़ के लिए समय एवं स्थान निर्धारित नहीं होता है। किसी भी समय एवं स्थान पर किसी भी घटना, दुर्घटना, तमाशा एवं विचित्र स्थिति पैदा होने पर लोग एकत्रित हो जाते हैं तथा भीड़ का निर्माण हो जाता है।
5. पारस्परिक प्रभाव: भीड़ में शारीरिक समीपता एवं कंधे से कंधे की रगड़ के कारण लोग एक-दूसरे को शीघ्र प्रभावित करते हैं और प्रभावित होते हैं। इस प्रभाव के कारण भीड़ के लोग कभी-कभी अवांछित एवं असम्भव प्रतीत होने वाले कार्य भी कर बैठते हैं।
6. सामूहिक शक्ति की अनुभूति: शारीरिक समीपता एवं प्रत्यक्ष सम्बन्ध के कारण भीड़ के लोगों को सामूहिक शक्ति की अनुभूति होती है। भीड़ में आकर व्यक्ति मार-पीट, दंगा, अपराध आदि भी कर बैठता है। वह समझता है कि सारा समूह उसके साथ है। वह समूह की शक्ति को अपनी शक्ति समझने लगता है।
7. असंगठित: भीड़ असंगठित होती है। इसका कोई नेता हो सकता है, किन्तु इसमें श्रम-विभाजन और पदों की कोई व्यवस्था नहीं होती। इसका न कोई स्थान निश्चित होता है और न समय। इसकी अन्तक्रिया अनियंत्रित होती है। इसकी सदस्यता के कोई नियम नहीं होते। कोई भी इसकी सदस्यता जब चाहे ग्रहण कर सकता है और जब चाहे छोड़ भी सकता है।
8. सीमित आकार एवं क्षेत्र: भीड़ का आकार आवश्यकता के अनुसार सीमित होता है। सदस्यों की संख्या अत्यधिक बढ़ जाने पर भीड़ अपनी विशेषताएँ खोने लगती है। भीड़ का वितरण स्थानीय (spatial) होता है।
किम्बाल यंग के अनुसार, “भीड़ का फैलाव एक सीमित क्षेत्र के अन्दर ही होता है।” इसका फैलाव पूरे नगर, गाँव, प्रान्त या देश में नहीं हो सकता।