भारतीय समाज के परिप्रेक्ष्य में संस्कृतिकरण की प्रक्रिया को हम निम्नांकित प्रमुख क्षेत्रों में परिलक्षित कर सकते हैं –
1. सामाजिक क्षेत्र:
- संस्कृतिकरण की प्रक्रिया से सम्बन्धित सामाजिक क्षेत्र वस्तुतः परिवर्तन सम्बन्धी दृष्टिकोण से अत्यधिक महत्त्वपूर्ण सिद्ध होता है क्योंकि संस्कृतिकरण अपने आंतरिक स्वरूप में धार्मिक व्यवस्था से सम्बन्धित प्रत्यय है।
- संस्कृतिकरण की प्रक्रिया का सर्वप्रथम उद्देश्य चूँकि सामाजिक ही है तथा छोटी निम्न जातियाँ अथवा समूह इस दिशा में इसलिए उन्मुख होते हैं कि वे अपने सामाजिक जीवन के परिप्रेक्षय में अपनी वर्तमान स्थिति को ऊँचा उठाना चाहते हैं।
2. धार्मिक क्षेत्र:
- इस प्रक्रिया के फलस्वरूप विभिन्न निम्न जातियों ने ब्राह्मण, क्षत्रिय तथा वैश्य जैसी द्विज जातियों की भांति अपने अपने पृथक् मंदिरों तथा पूजा स्थलों की स्थापना की है।
- नीची जातियों के व्यक्तियों ने यज्ञोपबीत धारण करते हुए चंदन का टीका आदि भी लगाना प्रारम्भ कर दिया है।
- अनेक निम्न जातियों ने स्वच्छ शरीर तथा वस्त्राभूषण धारण करना प्रारम्भ कर दिया है तथा माँस – मदिरा भी कुछ जातियों ने त्याग दिया है।
3. आर्थिक क्षेत्र:
- भारत सरकार की अछूत और अस्पृश्य तथा पिछड़ी जनजातियों के व्यक्तियों हेतु सरकारी नौकरी में रिजर्व कोटा अथवा आरक्षण नीति ने भी संस्कृतिकरण की दिशा में प्रेरित किया है।
- सरकार द्वारा प्राप्त विभिन्न अधिकारों तथा सुविधाओं के परिणामस्वरूप वे उत्तरोत्तर आर्थिक रूप से सर्वथा आत्मनिर्भर होती जा रही हैं।
4. रहन – सहन की दशाएँ:
- इस प्रक्रिया के माध्यम से निम्न जाति के सदस्य उच्च जातियों के समान ही पक्के सीमेन्टेड मकान बनवाने लगी है।
- ग्रामीण समाजों में भी अब बड़ी-बड़ी उच्च जातियों के साथ वे चारपाई पर ही बैठते हैं।
- निम्न जाति के सदस्य अब नियमपूर्वक स्नानादि भी प्रारम्भ करके साफ – स्वच्छ वस्त्रों को पहनना आरम्भ कर दिया है। इससे यह स्पष्ट होता है कि अब वे भी उच्च जातियों के समान ही रहन – सहन का स्तर अपनाने लगी है।