प्रबन्ध निर्धारित लक्ष्यों की प्राप्ति हेतु नियोजन, संगठन, नियुक्ति, निर्देशन एवं नियन्त्रण की प्रक्रिया है। प्रबन्ध का प्रयोग सर्वव्यापक एवं सार्वभौमिक है इसलिए विभिन्न विद्वानों ने अलग – अलग तरीके व दृष्टिकोण से परिभाषित किया है, जिनकी कुछ महत्वपूर्ण परिभाषाएँ निम्न प्रकार हैं। मेरी पार्कर फोलेट के अनुसार – “प्रबन्ध दूसरों से कार्य करवाने की कला है।” W.F. टेलर के अनुसार – “प्रबन्ध यह जानने की कला है कि आप क्या करना चाहते हैं और तत्पश्चात् यह सुनिश्चित करना है कि वह कार्य सर्वोत्तम एवं मितव्ययितापूर्ण विधि से किया जाये।”
थिरोफ, क्लेकैम्प एवं ग्रीडिंग के शब्दों में,”प्रबन्ध नियोजन, संगठन, निर्देशन एवं नियन्त्रण द्वारा संस्था के संसाधनों के आवंटन की प्रक्रिया है, ताकि ग्राहकों की इच्छित वस्तुओं व सेवाओं का उत्पादन कर संस्था के उद्देश्यों को पूरा किया जा सकें। इस प्रक्रिया में कार्य का निष्पादन प्रतिदिन परिवर्तनशील व्यावसायिक वातावरण में संगठन के कर्मचारियों के द्वारा किया जाता है।”उपरोक्त परिभाषाओं के आधार पर कहा जा सकता है कि प्रबन्ध एक कला एवं विज्ञान है जो अन्य व्यक्तियों से कार्य करवाने, लागतों को कम करने, मानवीय प्रयासों की सहायता से संस्था के उद्देश्यों की प्राप्ति में नियोजन से लेकर नियन्त्रण तक समग्र क्रियाओं में निहित है।
प्रबन्ध के उद्देश्य – उद्देश्य, किसी भी क्रिया के अपेक्षित परिणाम होते हैं। प्रबन्ध भी कुछ उद्देश्यों को पूरा करने के लिए कार्य करता है। प्रबन्ध को इन सभी उद्देश्यों को ढंग एवं दक्षता से पाना होता है।
अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से प्रबन्ध के उद्देश्यों को निम्न प्रकार वर्गीकृत किया जा सकता है –
(i) संगठनात्मक उद्देश्य – प्रबन्ध, संगठन के लिए उद्देश्यों का निर्धारण एवं उनको पूरा करने के लिए उत्तरदायी होता है। इसे विभिन्न क्षेत्रों के अनेक उद्देश्यों को प्राप्त करना होता है तथा हित रखने वाले सभी पक्षों, जैसे – अंशधारी, कर्मचारी, ग्राहक, सरकार आदि के हितों को ध्यान में रखना होता है। किसी भी व्यावसायिक संगठन का प्रमुख उद्देश्य अपने लाभों में वृद्धि करना होता है।
प्रमुख संगठनात्मक उद्देश्य निम्नलिखित हैं –
(a) अपने आप को जीवित रखना – किसी भी व्यवसाय का आधारभूत उद्देश्य अपने अस्तित्व को बनाये रखना होता है। प्रबन्ध को संगठन के बने रहने की दिशा में प्रयत्न करना चाहिए। इसके लिए संगठन को पर्याप्त धन अर्जित करना होगा जिससे कि लागते पूर्ण हो सकें।
(b) लाभ अर्जित करना – किसी भी व्यवसाय के लिए उसका जीवित रहना ही पर्याप्त नहीं है। बल्कि प्रबन्ध को यह भी सुनिश्चित करना होता है कि संगठन लाभ कमाये। लाभ, उद्यम के निरन्तर सफल संचालन के लिए एक महत्वपूर्ण प्रेरणा का कार्य करता है। लाभ व्यवसाय की लागत एवं जोखिमों को पूरा करने के लिए आवश्यक होता है।
(c) बढ़ोत्तरी करना – दीर्घ अवधि में संभावनाओं में वृद्धि व्यवसाय के लिए बहुत आवश्यक है। इसके लिए व्यवसाय का बढ़ना बहुत आवश्यक है। उद्योग में बने रहने के लिए प्रबन्ध को संगठन विकास की संभावना का पूरा लाभ उठाना चाहिए। व्यवसाय के विकास को विक्रय में वृद्धि, कर्मचारियों की संख्या में वृद्धि या पूँजी के निवेश में वृद्धि आदि के रूप में मापा जा सकता है।
(ii) सामाजिक उद्देश्य – प्रबन्ध को सामाजिक उद्देश्य समाज को लाभ पहुँचाना है। संगठन चाहे व्यावसायिक हो या गैर – व्यावसायिक, उसे समाज का अंग होने के कारण सामाजिक दायित्वों को पूरा करना भी आवश्यक होता है। इसका आशय है कि प्रबन्ध का उद्देश्य समाज के विभिन्न अंगों के लिए अनुकूल आर्थिक मूल्यों की रचना करना भी होता है। इसमें उत्पादन पर्यावरण के अनुकूल करना, रोजगार सुरक्षा प्रदान करना, कर्मचारियों के बच्चों के लिए विद्यालय, शिशु गृह आदि की सुविधाएँ प्रदान करना शामिल हैं।
(iii) व्यक्तिगत उद्देश्य – संगठन ऐसे विभिन्न लोगों से मिलकर बनता है जिनकी व्यक्तिगत पृष्ठभूमि, अनुभव एवं उद्देश्य भिन्न-भिन्न होते हैं। ये सभी लोग अपनी विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु संगठन का अंग बनते हैं। ये प्रतियोगी वेतन एवं अन्य आर्थिक लाभ, साथियों द्वारा मान्यता, व्यक्तिगत बढ़ोत्तरी एवं विकास जैसी उच्चस्तरीय आवश्यकताओं के रूपों में अलग-अलग होती है। प्रबन्ध को संगठन में तालमेल के लिए व्यक्तिगत उद्देश्यों का संगठन के उद्देश्यों के साथ मिलान करना होता है।