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व्यवसाय के सामाजिक उत्तरदायित्वों की संक्षेप में विवेचना कीजिए।

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प्रबन्ध का सामाजिक उत्तरदायित्व का विस्तृत क्षेत्र है उसे दायित्व निर्वहन में अपनी महती भूमिका निभानी होती है – प्रबन्ध का सामाजिक उत्तरदायित्व किन-किन के प्रति क्या-क्या होता है इसे निम्न प्रकार समझा जा सकता है –

उपरोक्त चार्ट से स्पष्ट हो रहा है कि प्रबन्ध का सामाजिक उत्तरदायित्व का क्षेत्र बहुत ही विस्तृत है। इन सभी वर्गों समूहों के सामाजिक उत्तरदायित्व का प्रबन्ध को ध्यान रखना पड़ता है।

किसके प्रति प्रबन्ध का क्या सामाजिक उत्तरदायित्व है इसे निम्न प्रकार बिन्दुवार समझा जा सकता है –

1. स्वयं के प्रति दायित्व –

प्रबन्धकों के अपने स्वयं के प्रति तथा अपने पेशे के प्रति प्रमुख निम्न दायित्व होते हैं –

  1. सामाजिक हितों को ध्यान में रखकर निर्णय लेना
  2. प्रबन्ध की पेशे के प्रति प्रतिष्ठा बनाये रखना
  3. पेशेवर संगठनों की सदस्यता ग्रहण करना
  4. पेशेवर शिष्टाचार का पालन करना
  5. प्रबन्ध आचार संहिता का पालन करना
  6. प्रबन्धकीय ज्ञान एवं शोध के प्रति विकास में योगदान करना
  7. अपने कार्मिकों के साथ घनिष्ठता एवं स्थायी सबंध बनाना।

2. अपनी संस्था के प्रति दायित्व – एक प्रबन्ध के अपनी संस्था के प्रति निम्न दायित्व होते हैं –

  1. संस्था के व्यवसाय का सफल संचालन करना
  2. संस्था के उत्पादों की मांग उत्पन्न करना
  3. संस्था को प्रतिस्पर्धी बनाये रखना
  4. व्यवसाय में नवाचारों को प्रोत्साहन देना
  5. संस्था का विकास एवं विस्तार करना
  6. शोध कार्य को बढ़ावा देना
  7. संस्था की लाभार्जन क्षमता में वृद्धि करना
  8. संस्था की छवि व प्रतिष्ठा को बनाये रखना।

3. स्वामियों के प्रति दायित्व –

प्रबन्ध एवं स्वामित्व के पृथक-पृथक हो जाने के कारण प्रबन्धकों के स्वामियों के प्रति दायित्व उत्पन्न हो जाते हैं जो निम्न प्रकार हैं –

  1. विनियोजित पूँजी को सुरक्षा प्रदान करना
  2. निश्चित उद्देश्यों के लिए ही पूँजी का उपयोग करना
  3. अंशधारियों को उचित लाभांश का भुगतान करना
  4. अंशपूँजी में अभिवृद्धि के प्रयास करना
  5. विभिन्न प्रकार के अंशधारियों के साथ समता एवं न्याय का व्यवहार करना
  6. व्यवसाय की प्रगति की यथार्थ सूचना देना
  7. कपटपूर्ण व्यवहार न करना, गुप्त लाभ न कमाना।
  8. अंशों के हस्तान्तरण में बाधा उत्पन्न नहीं करना।

4. ऋणदाताओं के प्रति दायित्व – व्यवसाय की वित्तीय आवश्यकताओं की पूर्ति में ऋणदाताओं का भी महत्वपूर्ण योगदान रहता है।

ऋणदाताओं के प्रति भी प्रबन्ध के निम्न दायित्व बनते हैं –

  1. ऋणराशि का सदुपयोग करना
  2. ऋण प्राप्ति एवं ब्याज की उचित शर्ते रखना
  3. मूल पूँजी व ब्याज का समय पर भुगतान करना
  4. बन्धक रखी गयी सम्पत्ति की पूर्ण सुरक्षा करना
  5. ऋणदाताओं को इच्छित सूचनाएँ उपलब्ध करवाना
  6. ऋणदाताओं के साथ मधुर व्यवहार रखना।

5. कर्मचारियों के प्रति दायित्व – कर्मचारी संस्था की महत्वपूर्ण निधि होते हैं, ये यांत्रिक मानव नहीं वरन संवेदनशील भावनाओं वाले प्राणी होते हैं। चार्ल्स मायर्स के अनुसार ”जो उद्यम मानवीय तत्वों की आवश्यकताओं एवं भावनाओं की उपेक्षा करते हैं वे यंत्र समूह के अतिरिक्त कुछ भी नहीं हैं।”

एक प्रबन्ध के अपने कर्मचारियों के प्रति निम्न दायित्व होते हैं –

  1. उचित वेतन का भुगतान करना
  2. प्रेरणात्मक मजदूरी योजनाओं को लागू करना
  3. कर्मचारियों को कार्य के प्रति सुरक्षा (गारन्टी) प्रदान करना
  4. स्वस्थ कार्य करने की स्थितियाँ परिस्थितियाँ उपलब्ध कराना
  5. श्रम कल्याण के कार्य करना
  6. सामाजिक सुरक्षा, पेंशन, ग्रेच्युटी, बीमा, भविष्य निधि आदि की व्यवस्था करना
  7. कर्मचारियों को उनकी रुचि एवं योग्यता के अनुरूप कार्य सौंपना
  8. कर्मचारियों को प्रशिक्षण उपलब्ध कराना
  9. पदोन्नति के अवसर उपलब्ध कराना
  10. कर्मचारियों को प्रबन्ध में भागीदारी उपलब्ध कराना
  11. बोनस एवं लाभों में हिस्सा देना
  12. क्षमता एवं व्यक्तित्व विकास के नये – नये अवसर प्रदान करना,
  13. अन्य प्रेरणादायी/उत्साही सुविधाएँ प्रदान करना।

6. ग्राहकों के प्रति दायित्व – ग्राहक बाजार का ‘राजा’ होता है। ग्राहक की संतुष्टि ही व्यवसाय की सफलता की आधार है। सरकार भी उपभोक्ताओं के हितों के संरक्षण के लिये विभिन्न प्रकार के कानून बनाती है एवं उपभोक्ताओं के हितों का संरक्षण करती है।

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ग्राहक की उपेक्षा व्यवसाय के लिये नुकसानदेह है। ऐसी स्थिति में ग्राहकों के प्रति प्रबन्ध के निम्न उत्तरदायित्व बन जाते हैं –

  1. ग्राहकों की रुचियों व आवश्यकताओं का अध्ययन करना
  2. उचित मूल्य पर वस्तुएँ एवं सेवाएँ उपलब्ध करवाना
  3. प्रमाणित किस्म की वस्तुएँ उपलब्ध कराना
  4. अनुचित प्रवृत्तियाँ कम नापतोल, झूठ, दिखावा, जमाखोरी मिलावट आदि को त्यागना
  5. झूठे अनैतिक विज्ञापन व भ्रामक प्रचार न करना
  6. विक्रय के समय दिये गये आश्वासनों व वायदों को पूरा करना
  7. विक्रय उपरान्त सेवाएँ प्रदान करना
  8. उपभोक्ताओं की शिकायतों को दूर करना
  9. आचार संहिताओं का पालन करना
  10. बाजार उपभोक्ता एवं वस्तुओं की उपयोगिता के बारे में शोध करना
  11. वस्तु के उपयोग विधियों आदि के बारे में ग्राहकों को जानकारी देना
  12. उपयोगी जीवन काल व जीवन स्तर में वृद्धि करने वाली वस्तुओं का निर्माण करना
  13. कृत्रिम कमी उत्पन्न नहीं करना व पूर्ति को नियमित बनाए रखना
  14. उचित समय व उचित दर पर उत्पाद उपलब्ध करवाना
  15. ग्राहकों से स्थायी सम्बन्ध बनाये रखना।

7. आपूर्तिकर्ताओं के प्रति दायित्व प्रबन्ध के आपूर्तिकताओं के प्रति निम्न दायित्व होते हैं –

  1. आपूर्तिकर्ताओं को उनके माल का उचित मूल्य प्रदान करना
  2. क्रय की उचित शर्ते रखना
  3. लेन-देनों की यथासमय भुगतान करना
  4. नवीन प्रकार के कच्चे माल को प्रस्तुत करने का अवसर देना
  5. बाजार संबंधी आवश्यक सूचनाएँ आपूर्तिकर्ताओं को उपलब्ध कराना।

8. अन्य व्यवसायियों के प्रति दायित्व –

प्रबन्ध के अन्य व्यवसायियों के प्रति भी दायित्व होते हैं जो निम्न प्रकार हैं –

  1. स्वस्थ प्रतिस्पर्धा बनाए रखना
  2. दूसरे व्यवसायी की निन्दी या आलोचना नहीं करना
  3. आपूर्ति पर एकाधिकार न जमाना
  4. दूसरे व्यवसायियों के ब्राण्ड, ट्रेडमार्क आदि का उपयोग नहीं करना
  5. केवल सामाजिक हितों में अभिवृद्धि एवं व्यावसायिक कुशलता के लिये संयोजन को प्रोत्साहित करना।

9. व्यावसायिक संघ तथा पेशेवर संस्थाओं के प्रति दायित्व –

  1. चैम्बर ऑफ कॉमर्स या अन्य व्यावसायिक संघों की सदस्यता ग्रहण करना
  2. इन संस्थाओं की प्रकाशित सामग्री का उपयोग करना
  3. इन संस्थाओं/संघों की आचार संहिता का पालन करना
  4. इनकी परियोज़नाओं में मौद्रिक सहयोग देना
  5. इनकी बैठकों में सहभागिता निभाते हुए विचार – विमर्श करना।

10. स्थानीय जन समुदाय के प्रति दायित्व इस वर्ग के प्रति प्रबन्ध के निम्न दायित्व होते हैं –

  1. प्राकृतिक सम्पदा की सुरक्षा करना
  2. वायु, जल, ध्वनि प्रदूषण को रोकना
  3. स्थानीय जन समुदाय के लिए रोजगार के अवसर पैदा करना
  4. जन कल्याणकारी संस्था, अस्पताल, स्कूल, धर्मशाला आदि की स्थापना करना वे उनको सहयोग करना
  5. महिलाओं कमजोर वर्ग, विकलांगों को सहायता प्रदान करना
  6. स्थानीय समुदाय की परम्पराओं, नियमों का पालन करना
  7. स्थानीय जनसमुदाय की विभिन्न स्तरों पर मदद करना
  8. स्थानीय जन समुदाय से विशेष प्रकार का लगाव रखना।

11. सरकार के प्रति दायित्व –

प्रत्येक प्रबन्ध एक निगमीय नागरिक है अतः प्रबंन्ध के सरकार के प्रति निम्न उत्तरदायित्व सृजित होते हैं –

  1. सभी सरकारी नियम व कानूनों की पालना करना
  2. सरकार की नीतियों के अनुरूप व्यवसाय की संचालन करना
  3. व्यावसायिक उत्पादन क्षमता व लाइसेंस क्षमता का पूर्ण उपयोग करना
  4. राष्ट्रीय हित में देश के आर्थिक संसाधनों का विदोहन करना
  5. सरकारी क्षेत्र व प्रक्रिया को भ्रष्ट नहीं करना
  6. करों का सही समय पर भुगतान करना तथा सरकार को सही विवरण प्रस्तुत करना
  7. राष्ट्रीय कार्यक्रम अल्पबचत, परिवार नियोजन आदि व सरकारी नीतियों के क्रियान्वयन में सहयोग करना।

12. विश्व के प्रति दायित्व –

आज व्यवसाय का स्वरूप राष्ट्रीय न रहकर अन्तर्राष्ट्रीय हो गया है अतः प्रबन्धकों का दायित्व सम्पूर्ण विश्व के प्रति भी उत्पन्न हो गया है जो निम्न प्रकार है –

  1. अन्तर्राष्ट्रीय व्यवसाय की अभिवृद्धि में सहयोग करना
  2. अन्य राष्ट्रों की व्यावसायिक नीति तथा घरेलू मामलों में हस्तक्षेप न करना
  3. अन्तर्राष्ट्रीय प्रौद्योगिकी व तकनीकी को अपनाना
  4. अन्तर्राष्ट्रीय व्यावसायिक नैतिकता व संहिताओं का पालन करना
  5. अन्य देशों के सामाजिक व सांस्कृतिक मूल्यों का आदर करना
  6. पिछड़े राष्ट्रों में उद्योगों की स्थापना करना
  7. विकासशील व पिछड़े राष्ट्रों को तकनीकी व प्रबन्धकीय सुविधा उपलब्ध करवाना
  8. न्यायोचित व्यवहार, स्वस्थ प्रतिस्पर्धा व सौहार्दपूर्ण संबंधों पर ध्यान देना।

इस प्रकार प्रबन्ध का सामाजिक उत्तरदायित्व विभिन्न वर्गों के प्रति व्यापक है।

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