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राजस्थान के एकीकरण के चरणों का वर्णन कीजिए।

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भारत सरकार के रियासत विभाग द्वारा सभी रियासतों को मिलाकर एकीकृत राजस्थान का गठन करने का निश्चय किया गया। इस कार्य के लिए अत्यन्त बुद्धिमानी, दूरदर्शिता, संयम एवं कूटनीति भी आवश्यकता थी और इसलिए यह कार्य बड़ी सावधानी से धीरे – धीरे सम्पन्न किया गया।

एकीकृत राजस्थान के विभिन्न चरण: एकीकृत राजस्थान का गठन निम्नलिखित पाँच चरण में पूर्ण हुआ-

1. प्रथम चरण : मत्स्य संघ का निर्माण:

इस संघ में अलवर, भरतपुर, धौलपुर एवं करौली को शामिल किया गया। भौगोलिक, जातीय और आर्थिक दृष्टिकोण से ये एक जैसे राज्य थे। चारों राज्यों के शासकों को 27 फरवरी, 1948 ई. को दिल्ली बुलाकर उनके समक्ष संध का प्रस्ताव रखा गया, जिसे सहर्ष स्वीकार कर लिया गया। श्री के. एम. मुंशी के सुझाव पर इस संघ का नाम ‘मत्स्य संघ’ रखा गया जैसा कि महाभारत के काल से इस क्षेत्र का नाम था। 28 फरवरी, 1948 को दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए गए। 18 मार्च, 1948 को इस संघ का उद्घाटन केन्द्रीय मन्त्री एन. वी. गाडगिल ने किया।

संघ की जनसंख्या अयरह लाख व वार्षिक आय दो करोड़ रुपये थी। धौलपुर के महाराज उदयभान सिंह को राज प्रमुख नियुक्त कर एक मन्त्रिमण्डल का गठन किया गया। शोभाराम (अलवर) को मत्स्य संघ का प्रधानमन्त्री बनाया गया एवं संघ में शामिल चारों राज्यों में से एक – एक सदस्य लेकर मन्त्रिमण्डल बनाया गया। गोपीलाल यादव (भरतपुर), मास्टर भोलानाथ (अलवर), डॉ. मंगल सिंह (धौलपुर), चिरंजीलाल शर्मा (करौली) ने शपथ ली।

2. द्वितीय चरण : संयुक्त राजस्थान:

इस संघ में कोय, बूंदी, झालावाड़, बाँसवाड़ा, प्रतापगढ़ और शाहपुरा शामिल किए गए। कोय, झालावाड़ व डूंगरपुर के शासकों ने एक हाड़ौती संघ बनाने का विचार किया एवं 3 मार्च, 1948 को दिल्ली में इन तीनों शासकों ने संघ का विचार स्वीकार कर लिया। यही राय बाँसवाड़ा, प्रतापगढ़ व डूंगरपुर के राज्यों की भी बनी। स्थानीय प्रजामण्डलों का दबाव भी लगातार संघ के पक्ष में बन रह्य था। शाहपुर व किशनगढ़ दो ऐसी रियासतें र्थी जिन्होंने पूर्व में अजमेर-मेरवाड़ा में विलय के प्रयास का विरोध किया था।

ये रियासतें राजस्थान की अन्य रियासतों के संघ में मिलने के इच्छुक थे। इसीलिए इन्होंने संयुक्त राजस्थान में सम्मिलित होना स्वीकार कर लिया। इस प्रकार संयुक्त राजस्थान में नौ राज्य थे- बाँसवाड़ा, डूंगरपुर, प्रतापगढ़, कोटा, बूंदी, झालावाड़, किशनगढ़, शाहपुरा एवं टोंक। इस संघ का क्षेत्रफल 16807 वर्ग मील, आबादी 23.5 लाख एवं आय 1.90 करोड़ वार्षिक थी।

प्रस्तावित नए संघ के क्षेत्र के मध्य में मेवाड़ की रियासत पड़ती थी। यद्यपि रियासत विभाग के मापदण्डानुसार मेवाड़ अपना पृथक् अस्तित्व रख सकता था। फिर भी रियासत विभाग ने मेवाड़ को इस संघ में शामिल होने का निमंत्रण दिया। किन्तु मेवाड़ के महाराणा भूपाल सिंह तथा मेवाड़ राज्य के दीवान सर एस. वी. राममूर्ति ने इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए कहा कि मेवाड़ का 1300 वर्ष पुराना राजवंश अपनी गौरवशाली परम्पराओं को तिलाजंलि देकर भारत के मानचित्र पर अपना अस्तित्व समाप्त नहीं कर सकता।

मेवाड़ राज्य के उपर्युक्त रवैये को देखते हुए रियासत विभाग ने निर्णय लिया कि फिलह्मल उदयपुर को छोड़कर दक्षिण – पूर्व राजस्थान की रियासतों को मिलाकर ‘संयुक्त राजस्थान’ का निर्माण कर लिया जाय। प्रस्तावित संयुक्त राजस्थान में कोय सबसे बड़ी रियासत थी। अत: निर्णय हुआ कि ‘संयुक्त राजस्थान के राज प्रमुख का पद कोय के महाराज भीम सिंह को दिया जाए और 25 मार्च, 1948 को श्री एन. वी. गाडगिल इस नये संघ का उद्घाटन करें।

कोय के महाराज भीम सिंह को राज प्रमुख का पद दिया जाना, वरिष्ठता, क्षेत्रफल व महत्व के आधार पर बूंदी के महाराज बहादुर सिंह को स्वीकार्य नहीं था क्योंकि कुलीय परम्परा में उसका कोय से स्थान ऊँचा था। अत: बूंदी महाराव ने मेवाड़ के महाराणा से नए राज्य में शामिल होने की प्रार्थना की ताकि उदयपुर के महाराज राज प्रमुख बन जायेंगे, जिससे बूंदी महाराज की कठिनाइयों का स्वत: निराकरण हो जायेगा। किन्तु महाराणा ने बूंदी महाराज को वही उत्तर दिया जो उन्होंने कुछ दिनों पहले रियासत विभाग को दिया था।

अन्त में विवश होकर बूंदी महाराव ने कोटा महाराज को संयुक्त राजस्थान का राजप्रमुख बनाने का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। बूंदी महाराव को उप-राजप्रमुख तथा डूंगरपुर के महाराव को उप-राजप्रमुख बनाने का निर्णय किया। इन नौ राज्यों का एक संक्षिप्त संविधान तैयार किया गया और इसका उद्घाटन 25 मार्च, 1948 को होना तय हुआ।

इधर मेवाड़ के संयुक्त राजस्थान में शामिल न होने के फैसले का मेवाड़ में तीव्र विरोध हुआ। मेवाड़ प्रजा मण्डल के प्रमुख नेता एवं संविधान निर्मात्री समिति के सदस्य श्री माणिक्यलाल वर्मा ने कहा कि-मेवाड़ की बीस लाख जनता के भाग्य का फैसला अकेले महाराणा साहब और उनके प्रधान सर राममूर्ति नहीं कर सकते। प्रजामण्डल की यह स्पष्ट नीति है कि मेवाड़ अपना अस्तित्व समाप्त कर राजपूताना प्रान्त का एक अंग बन जाये।

किन्तु महाराणा अपने निश्चय पर अटल रहे। शीघ्र ही मेवाड़ की राजनैतिक परिस्थितियाँ पलटी। मेवाड़ में मन्त्रिमण्डल के गठन को लेकर प्रजामण्डल एवं मेवाड़ सरकार के बीच गतिरोध उत्पन्न हो गया। अतः राज्य में उत्पन्न राजनैतिक गतिरोध को समाप्त करने के लिए महाराणा ने 23 मार्च, 1948 को मेवाड़ को संयुक्त राजस्थान में शामिल करने के अपने इरादे की सूचना भारत सरकार को भेजते हुए संयुक्त राजस्थान के उद्घाटन की तारीख 25 मार्च को आगे बद्मने का आग्रह किया।

चूँकि विलय की प्रक्रिया एवं उद्घाटन की सभी तैयारियाँ पूरी हो चुकी अतः उसी समय पर कार्यक्रमों में परिवर्तन न करते हुए श्री गाडगिल ने राजस्थान का विधिवत् उद्घाटन किया। श्री गोकुल प्रसाद असावा को प्रधानमन्त्री बनाया गया। किन्तु भारत सरकार की सलाह पर मन्त्रिमण्डल का गठन का कार्य स्थगित कर दिया गया।

3. तृतीय चरण :मेवाड़ का संयुक्त राजस्थान में विलय:

संयुक्त राजस्थान के उद्घाटन के तीन दिन बाद संयुक्त राजस्थान में मेवाड़ विलय के प्रश्न पर वार्ता आरम्भ हुई। सरे राममूर्ति ने भारत सरकार को महाराणा की प्रमुख तीन माँगों से अवगत कराया। पहली – महाराणा को संयुक्त राजस्थान का वंशानुगत राजप्रमुख बनाया जाए, दूसरी – उन्हें बीस लाख रुपये वार्षिक प्रिवीपर्स दिया जाए और तीसरी – यह कि उदयपुर को संयुक्त राजस्थान की राजधानी बनाया जाए।

रियासत विभाग ने संयुक्त राजस्थान के शासकों से बात करके मेवाड़ को संयुक्त राजस्थान में विलय करने का निश्चय किया। महाराणा को आजीवन राजप्रमुख मान लिया गया। यह पद महाराणा की मृत्यु के बाद समाप्त होना तय माना गया। संयुक्त राजस्थान की राजधानी उदयपुर रखी गयी किन्तु विधानसभा का प्रति वर्ष एक अधिवेशन कोय में रखना निश्चित हुआ। मेवाड़ के महाराणा ने प्रिवीपर्स बीस लाख रुपये माँगे थे। इसके जवाब में प्रिवीपर्स तो दस लाख ही रखा गया किन्तु वार्षिक अनुदान के रूप में पाँच लाख रुपये व धार्मिक अनुष्ठान के लिए पाँच लाख रुपये स्वीकृत किए गए। 1 अप्रैल, 1948 को मेवाड़ ने विलय पत्र पर हस्ताक्षर किए।

इस संघ का उद्घाटन पंडित नेहरू ने 18 अप्रैल, 1948 को उदयपुर में किया। मेवाड़ के महाराणा राजप्रमुख, कोय के महाराज वरिष्ठ उप-राजप्रमुख तथा बूंदी व डूंगरपुर के शासक कनिष्ठ उप-राजप्रमुख घोषित किए गए। प्रधानमन्त्री माणिक्यलाल वर्मा ने पंडित नेहरू एवं सरदार पटेल के परामर्श पर अपने मन्त्रिमण्डल का गठन किया। मन्त्रिमण्डल में गोकुल प्रसाद असावां (शाहपुरा), प्रेम नारायण माथुर, भूरेलाल बया और मोहन लाल सुखाड़िया (सभी उदयपुर), भोगीलाल पण्ड्या (डूंगरपुर), अभिन्न गिरी (कोटा) एवं ब्रजसुन्दर शर्मा (बूंदी) थे। इस प्रकार राजस्थान एकीकरण का तीसरा चरण भी पूरा हुआ।

4. चतुर्थ चरण : वृहत् राजस्थान का निर्माण:

मेवाड़ के विलय के साथ ही शेष बचे राज्यों का विलय आसान व निश्चित हो गया। जयपुर, जोधपुर, बीकानेर व जैसलमेर में विलय व एकीकरण का जनमत और भी तेज हो गया। जोधपुर, बीकानेर एवं जैसलमेर राज्यों की सीमाएँ पाकिस्तान की सीमा से मिली हुई थीं, जहाँ से सदैव आक्रमण का भय बना रहता था।

फिर यातायात एवं संचार साधनों की दृष्टि से यह क्षेत्र काफी पिछड़ा हुआ था, जिसका विकास करना इन राज्यों के आर्थिक सामर्थ्य के बाहर था। समाजवादी दल के नेता डॉ. जय प्रकाश नारायण ने 9 नवम्बर, 1948 को एक सार्वजनिक सभा में अविलम्ब वृहत् राजस्थान के निर्माण की माँग की। अखिल भारतीय स्तर पर राजस्थान आन्दोलन समिति का गठन किया गया जिसके अध्यक्ष डॉ. राममनोहर लोहिया ने भी एकीकृत राजस्थान की माँग की थी।

रियासत विभाग के सचिव श्री वी. पी. मेनन ने सम्बन्धित शासकों से वार्ता शुरू की। वे 11 जनवरी, 1949 को जयपुर गए एवं जयपुर महाराज से वार्ता की। जयपुर महाराज सवाई मानसिंह काफी हिचकिचाहट एवं समझाने-बुझाने के बाद वृहत् राजस्थान के लिए तैयार हुए किन्तु यह शर्त रखी कि जयपुर महाराज को वृहत् राजस्थान का वंशानुगत राजप्रमुख बनाया जाए और जयपुर को भावी राजस्थान की राजधानी बनाया जाये।

मेनन ने विलय की शर्तों पर बाद में विचार करने का आश्वासन देकर विलय की बात स्वीकार कर ली। विलय के प्रारूप की जयपुर महाराजा की स्वीकृति के बाद तार द्वारा इसकी सूचना बीकानेर और जोधपुर को भेज दी गयी। बीकानेर एवं जोधपुर के शासकों ने काफी आनाकानी के बाद विलय के प्रारूप को स्वीकृति दे दी। 14 जनवरी, 1949 को सरदार पटेल ने उदयपुर की एक आम सभा में वृहत् राजस्थान के निर्माण की घोषणा कर दी।

मेवाड़ के महाराणा को आजीवन महाराज प्रमुख घोषित किया गया। जयपुर के शासक को राजप्रमुख, जोधपुर व कोटा के शासकों को वरिष्ठ उप – राजप्रमुख और बूंदी व डूंगरपुर के शासकों को कनिष्ठ उप – राजप्रमुख बनाया गया। राज प्रमुख व उसके मन्त्रिमण्डल को केन्द्रीय सरकार के सामान्य नियन्त्रण में रखा गया। राजप्रमुख को नये संविलयन पत्र पर हस्ताक्षर केरके संविधान द्वारा संघीय व समवर्ती सूचियों को स्वीकार करना था।

सरदार पटेल ने नई संगठित इकाई का उद्घाटन 30 मार्च, 1949 को किया जिसे वर्तमान में राजस्थान दिवस के रूप में मनाया जाता है। श्री हीरालाल शास्त्री ने 4 अप्रैल, 1949 को मन्त्रिमण्डल की कमान सम्भाली जिसमें श्री सिद्धराज दड्दा (जयपुर), प्रेम नारायण माथुर (उदयपुर), भूरेलाल बया (उदयपुर), फूलचन्द बापना (जोधपुर), नरसिंह कछवाहा (जोधपुर), राव राजा हनुमन्त सिंह (जोधपुर), रघुवर दयाल गोयल (बीकानेर) व वेदपाल त्यागी (कोटा) सम्मिलित थे।

जयपुर के शासक को अठारह लाख रुपये, जोधपुर के शासक को 17.5 लाख रुपये, बीकानेर शासक को 17 लाख रुपये, जैसलमेर शासक को 2.8 लाख रुपये प्रिवीपर्स के रूप में स्वीकृत किए गए। जयपुर को राजधानी घोषित किया गया तथा राजस्थान के बड़े नगरों का महत्व बनाये रखने के लिए कुछ राज्य स्तर के सरकारी कार्यालय; यथा – हाईकोर्ट जोधपुर में, शिक्षा विभाग बीकानेर में, खनिज विभाग उदयपुर में तथा कृषि विभाग भरतपुर में स्थापित किए गए।

5. पंचम चरण : मत्स्य संघ का वृहत् राजस्थान में विलय:

मत्स्य संघ के निर्माण के समय इस संघ में सम्मिलित होने वाले चारों राज्यों के शासकों को यह स्पष्ट कर दिया गया था कि भविष्य में यह संघ राजस्थान अथवा उत्तर प्रदेश में विलीन किया जा सकता है। इधर मत्स्य संघ स्वतन्त्र रूप से कार्य कर रहा था किन्तु सरकार कई समस्याओं से घिरी थी। मेवों का उपद्रव सरकार के लिए चिन्ता का विषय था। भरतपुर किसान सभा एवं नागरिक सभा द्वारा सरकार विरोधी आन्दोलन भी चरम सीमा पर था।

भरतपुर किसान सभा ने ब्रज प्रदेश नाम से भरतपुर, धौलपुर के अलग अस्तित्व की माँग रखी। अब यह आशंका व्याप्त होने लगी कि कहीं मत्स्य संघ का ही विघटन हो जाए। इस आशंका को दृष्टिगत रखते हुए चारों राज्यों के शासकों तथा प्रधानमन्त्रियों को बातचीत के लिए 10 मई, 1949 को दिल्ली बुलाया गया। विचारणीय बिन्दु यह था कि ये राज्य निकटवर्ती राज्य उत्तर प्रदेश में विलीन होंगे अथवा राजस्थान में।

जहाँ अलवर व करौली राजस्थान में विलय के पक्ष में थे, वहीं भरतपुर और धौलपुर उत्तर प्रदेश में विलय के इच्छुक थे। समस्या के समाधान के लिए श्री शंकरराव देव की अध्यक्षता में एक समिति बनाई गई। इस समिति की सिफारिश के अनुसार भरतपुर व धौलपुर का जनमत राजस्थान में विलय के पक्ष में था। 15 मई, 1948 को ‘मत्स्य संघ’ राजस्थान में सम्मिलित हो गया।

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