भूमिका:
व्यापार के बहाने ईस्ट इण्उिया कम्पनी भारत आई, उसके साथ अन्य यूरोपीय जातियाँ भी आईं किन्तु अंग्रेजों को अधिक सफलता मिली। अंग्रेजों को एक लाभ यह मिला कि मुगल बादशाह औरंगजेब की मृत्यु के बाद भारत छोटे-छोटे राज्यों एवं रियासतों में बँट गया। यह छोटे – छोटे राज्य आपस में लड़ते रहते थे।
राजाओं की आपसी फूट का लाभ उठाकर ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने भारत पर अपना शासन स्थापित कर लिया। लॉर्ड डलहौजी के शासन काल में देशी रियासतों में अंग्रेज रेजीडेण्ट का प्रभाव बढ़ गया और रेजीडेण्ट सुरक्षा, कर्ज तथा दत्तक पुत्र का बहाना बनाकर देशी रियासतों को हड़पने लगे। इससे नाराज होकर कई राजा एवं जागीदार भी अंग्रेजी शासन को समाप्त करने के लिए तत्पर हो उठे।
अखिल भारतीय स्तर पर जहाँ 1857 ई. में क्रान्ति का बिगुल बज उठा तो उसमें मंगल पाण्डे, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई व ताँत्या टोपे जैसे क्रान्तिकारियों ने हुंकार भरी। उसी ज्वाला की एक चिंगारी राजस्थान में भी भड़क उठी तथा राज्य की जनता ने उत्साह के साथ क्रान्तिकारियों को क्रान्ति में सहयोग दिया।
राजस्थान में जन जागृति के कारण
किसी भी देश में राजनैतिक चेतना आकस्मिक घटना का परिणाम नहीं होती। इसके लिए दीर्घकाल तक साधना और प्रयत्न करने पड़ते हैं।
इस नव राजनीतिक चेतना के कुछ प्रेरक तत्व निम्न प्रकार हैं
(1) स्वामी दयानन्द सरस्वती व उनको प्रभाव:
आर्य समाज के संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वती स्वदेशी व स्वराज्य का शंख फैंकने वाले पहले समाज सुधारक थे। 1865 ई. में वे करौली, जयपुर व अजमेर आये। उन्होंने स्वधर्म, स्वदेशी, स्वभाषा व स्वराज्य का सूत्र दिया जिसे शासक व जनता ने सहर्ष अनुमोदित किया। 1888 – 1890 ई. के बीच आर्य समाज की शाखाएँ राजस्थान में स्थापित की गईं एवं ‘वैदिक मन्त्रालय’ नामक छापाखाना अजमेर में स्थापित किया गया। 1883 ई. में स्वामी जी ने उदयपुर में ‘परोपकारिणी सभा’ की स्थापना की, जो बाद में अजमेर स्थानान्तरित हो गई। इस प्रकार स्वराज्य के लिए प्रेरणा देने का प्रारम्भिक कार्य आर्य समाज ने किया।
(2) समाचार – पत्रों व साहित्य का योगदान:
राजनीतिक चेतना के प्रसार में समाचार-पत्रों का योगदान उल्लेखनीय है। 1885 ई. में राजपूताना गजट, 1889 ई. में राजस्थान समाचार, प्रारम्भिक समाचार-पत्र थे। 1920 ई. में पथिक ने राजस्थान केसरी’ का प्रकाशन आरम्भ किया, जिसने अंग्रेजी नीतियों के खिलाफ अपना स्वर ऊँचा किया।
1922 ई. में राजस्थान सेवा संघ ने ‘नवीन राजस्थान’ नामक अखबार निकाला, जिसने कृषक आन्दोलनों के पक्ष में आवाज उठाई। 1943 ई. में नवज्योति, 1939 ई. में नवजीवन, 1935 ई. में जयपुर समाचार, 1943 ई. में ‘लोकवाणी’ इत्यादि समाचार-पत्रों ने राष्ट्रीय स्तर पर राजस्थान की समस्याओं व आन्दोलनों का खुलासा किया व इनके लिए राष्ट्रीय सहमति बनाई।
इसी प्रकार ठाकुर केसरी सिंह बारहठ, जयनारायण व्यास, पं. हीरालाल शास्त्री की कविताओं में देश-प्रेम अपनी चरम सीमा पर परिलक्षित होता है। अर्जुन लाल सेठी की कृतियों ने वैचारिक क्रान्ति उत्पन्न की। इस सन्दर्भ में महाकवि सूर्यमल्ल मिश्रण द्वारा रचित ‘वीर सतसई’ का उद्धरण विस्मृत नहीं किया जा सकता है जिसमें वीर रस व स्वदेश प्रेम का अनूठी सम्मिश्रण है।
(3) मध्य वर्ग की भूमिका:
यद्यपि राजस्थान का साधारण मनुष्य भी विद्रोह की सामर्थ्य रखता था, फिर भी एक योग्य नेतृत्व उसे मध्य वर्ग से ही मिला जो आधुनिक शिक्षा प्राप्त था। यह नेतृत्व शिक्षक, वकील व पत्रकार वर्ग से आया। जयनारायण व्यास, मास्टर भोलानाथ, मेघराम वैद्य, अर्जुन लाल सेठी, विजय सिंह पथिक आदि इसी मध्यम वर्ग के प्रतिनिधि थे।
(4) प्रथम विश्व युद्ध का प्रभाव:
राजस्थान के लगभग सभी राज्यों की सेनाओं ने प्रथम विश्व युद्ध में भाग लिया। जो सैनिक लौटकर आये उन्होंने अपने अनुभव बाँटे। नई वैचारिक क्रान्ति से राजस्थान के लोगों को परिचित कराया। दूसरी ओर युद्ध का समस्त भार भारतीय जनता द्वारा अंग्रेज सत्ता को कर चुका कर उठाना पड़ा और परिणामस्वरूप असन्तोष का भाव अधिक पनपने लगा।
(5) बाह्य वातावरण का प्रभाव:
राजस्थान शेष भारत में चल रही राजनीतिक गतिविधियों से अनभिज्ञ नहीं था। राष्ट्रीय स्तर के नेताओं व उनके कार्यक्रमों का प्रभाव यहाँ भी पड़ा। जहाँ एक ओर हरिभाऊ उपाध्याय व जमनालाल बजाज जैसे लोग गाँधीवादी नीतियों का अनुसरण कर रहे थे, वहीं रास बिहारी बोस के विचारों से प्रेरित अर्जुनलाल सेठी, गोपाल सिंह खरवा व बारहठ परिवार भी स्वतन्त्रता की अलख जगा रहे थे।