(अ) जो व्यक्ति केवल अपनी ही सुख-सुविधा की चिन्ता करता है और अपने काम के लिए दूसरों की उपेक्षा करता है, वह स्वार्थ-विवश होता है।
(ब) जो व्यक्ति सभी से सहायता प्राप्त कर लेता है, परन्तु समय आने पर दूसरों की सहायता-सहयोग नहीं करता है, वह संसार को स्वार्थी कहता है।
(स) यह संसार मनुष्य के लिए परीक्षा-स्थल है, क्योंकि यहीं पर उसकी बुद्धि, आचार-व्यवहार एवं मानवीय आदर्शों की परीक्षा होती है।
(द) मनुष्य सभी प्राणियों में बल-बुद्धि में श्रेष्ठ है, इसलिए उसका यह कर्त्तव्य है कि वह मानवता का आचरण कर सभी के कल्याण-सुख के लिए सचेष्ट रहे।
(य) काव्यांश का उचित शीर्षक 'कर्तव्यनिष्ठ जीवन'।
(र) इस पंक्ति का तात्पर्य है कि हे स्वार्थी मनुष्य! क्या तुमने कभी दुःख, पीड़ा, निराशा से पीड़ित व्यक्ति की सहायता की है।