मुद्रण सस्कृति के प्रसार से भारतीय महिलाओं पर क्या प्रभाव:
(i) नारी-शिक्षा - लेखकों ने महिलाओं के जीवन व भावनाओं को लेकर लिखना प्रारम्भ किया जिससे महिला पाठकों की संख्या बढ़ने लगी। वे शिक्षा में रुचि लेने लगी और उनके लिए कई स्कूल व कॉलेज अलग से खोले गए । कई पत्रिकाओं ने भी नारि-शिक्षा के महत्व की चर्चा करनी शुरू कर दी।
(ii) महिला लेखिकाएँ - 19वीं सदी के प्रारम्भ में पूर्वी बंगाल में रशसंदरी देवी, एक परंपरित परिवार की घरेलू विवाहिता, ने रसोईघर में छिपकर पढ़ना सीखा बाद में उसने आत्मकथा .अमर जीवन. (अर्थात मेरा जीवन) लिखी जो 1876 में छपी थी। 1860 के दशक से कैलाशबाशिनी देवी जैसी कई बंगला महिला लेखिकाओं ने महिलाओं के अनुभवों पर लिखना शुरू किया कि कैसे वे घरों में बंदी व निरक्षर बनाकर रखी जाती हैं, घर भर के काम का बोझ ढोती हैं और जिनकी सेवा करती हैं, उन्हीं द्वारा दुत्कारी जाती हैं। 1880 में आज के महाराष्ट्र में ताराबाई शिंदे और पंडिता रमाबाई ने सवर्ण नारियों विशेषत: विधवाओं की शोचनीय दशा के विषय में जोश और रोषपूर्वक लिखा । तमिल लेखिकाओं ने भी नारी के निम्न स्तरीय जीवन के विषय में विचार व्यक्त किया।
(iii) हिन्दी लेखन और महिलाएँ - उर्दू, तमिल, बंगला और मराठी मुद्रण संस्कृति तो पहले ही आ चुकी थी परन्तु हिन्दी मुद्रण 1870 के दशक में गंभीरतापूर्वक प्रारंभ हुआ। शीघ्र ही इसका एक बड़ा भाग नारी-शिक्षा के प्रति समर्पित होने लगा।
(iv) नयी पत्रिकाएँ - 20वीं सदी के प्रारंभ में महिलाओं द्वारा लिखित पत्रिकाएँ लोकप्रिय हुई जिनमें नारी-शिक्षा, विधवा-जीवन, विधवा पुनर्विवाह और राष्ट्रीय आन्दोलन जैसे विषयों पर चर्चा होती थी। कुछ ने तो महिलाओं के लिए फैशन का ज्ञान देना भी शुरू कर दिया।
(v) महिलाओं के लिए उपदेश - राम चड्ढा ने औरतों को आज्ञाकारी पत्नियों बनने का उपदेश देने के उद्देश्य से .स्त्रीधर्म-विचार. पुस्तक लिखी। ऐसे ही संदेश को लेकर खालसा पुस्तिका सभा ने सस्ती पुस्तिकाएँ छापी। इनमें से अधिकतर अच्छी स्त्री के गुणों. पर वार्तालाप के रूप में थीं।