गुणवान मुहम्मद कवि को एक ही नेत्र था। किन्तु फिर भी उनकी कवि-वाणी में वह प्रभाव था कि जिसने भी सुना वही विमुग्ध हो गया। जिस प्रकार विधाता ने संसार में सदोष, किन्तु प्रभायुक्त चन्द्रमा को बनाया है, उसी प्रकार जायसी जी की कीर्ति उज्जवल थी किन्तु उनमें अंग-भंग दोष था। जायसी जी समदर्शी थे क्योंकि उन्होंने संसार को सदैव एक ही आँख से देखा। उनका वह नेत्र अन्य मनुष्यों के नेत्रों से उसी प्रकार अपेक्षाकृत अधि क तेज युक्त था, जिस प्रकार कि तारागण के बीच में उदित हुआ शुक्रतारा। जब तक आम्र फल में डाभ काला धब्बा (कोइलिया) नहीं होता तबतक वह मधुर सौरभ से सुवासित नहीं होता। समुद्र का पानी खारयुक्त होने के कारण ही वह अगाध और अपार है। सारे सुमेरु पर्वत के स्वर्णमय होने का एकमात्र यही कारण है कि वह शिव-त्रिशूल द्वारा नष्ट किया गया, जिसके स्पर्श से वह सोने का हो गया। जब तक घरिया अर्थात् सोना गलाने के पात्र में कच्चा सोना गलाया नहीं जाता जबतक वह स्वर्ण कला से युक्त अर्थात् चमकदार नहीं होता। जायसी अपने संबंध में गर्व से लिखते हुए कहते हैं कि वे एक नेत्र के रहते हुए भी दर्पण के समान निर्मल और उज्वल भाव वाले हैं। समस्त रूपवान व्यक्ति अधिक उत्साह से उनके मुख की ओर देखा करते हैं। यानि उन्हें नमन करते हैं।
नोट : कहते हैं कि जायसी बार्थी आँख के अंधे थे। यह एक अंग-दोष था, किन्तु जायसी जी ऐसा मानने से इन्कार करते हैं। "जग सूझा एनै कइ नाहाँ। उआ सूक जस नखतन्ह माँहा"। आदि अनेक उक्तियों से वह अपने पक्ष की पुष्टि करते हैं। आशय है-अंगहीन होने पर भी गुणी व्यक्ति पूजनीय होता है।