DDT का उपयोग एक सम्पर्क कीटनाशक (contact insecticide) की भाँति किया जाता है। सस्ता तथा शक्तिशाली होने के कारण मक्खी, मच्छर, कीड़े-मकोड़े, शलभ तथा कृषि पीड़कों को मारने के लिए इसका व्यापक स्तर पर उपयोग किया जाता है। यह मुख्यत: मलेरिया फैलाने वाले ऐनोफीलीज मच्छर (Anopheles mosquito) तथा टाइफस वाहक जुओं को समाप्त करने में प्रभावकारी है।
द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात् कीटनाशक के रूप में DDT का उपयोग विश्व स्तर पर तेजी से बढ़ा। 1940 ई० के अन्त में DDT के अत्यधिक उपयोग के कारण उत्पन्न होने वाली समस्याएँ सामने आने लगीं। कीटों की अनेक प्रजातियों ने DDT के प्रति प्रतिरोधात्मकता विकसित कर ली तथा यह मछलियों के लिए अति विषैली सिद्ध हुई। DDT के अत्यधिक रासायनिक स्थायित्व तथा इसकी वसा में विलेयता ने समस्या को और जटिल बना दिया। जन्तुओं द्वारा DDT का शीघ्रता से उपापचय नहीं होता है बल्कि यह वसीय ऊतकों में एकत्र तथा संग्रहित हो जाती है। यदि जन्तु इसका निरन्तर अन्तर्ग्रहण करता रहता है तो समय के साथ इसकी मात्रा निरन्तर बढ़ती जाती है। यह बढ़ी हुई मात्रा जन्तुओं के जनन तन्त्र पर विपरीत प्रभाव डालती है। इसके दुष्प्रभावों (ill effects) को देखते हुए, यू० एस० ए० ने 1973 ई० में DDT पर प्रतिबन्ध लगा दिया था यद्यपि विश्व में अनेक स्थानों पर इसका उपयोग आज भी हो रहा है।