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एस्केरिएसिस से आप क्या समझते हैं? इसके बचाव, उपचार और नियंत्रण का उल्लेख कीजिए। 

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एस्केरिएसिस 

यह रोग मनुष्य की आँत में रहने वाले परजीवी एस्केरिस लुम्ब्रिकॉयड्स (Ascaris lumbricoides) नामक, गोल कृमि से होता है। संक्रमित भोजन के साथ इस परजीवी के अण्डे मनुष्य की आँत में पहुँच जाते हैं। आँत में इसका लार्वा छेद करके हृदय, फेफड़े, यकृत को संक्रमित करता है। यह परजीवी हमारी आँत में पचे हुए भोजन पर निर्भर करता है। आँत में इसकी संख्या 500-5000 तक हो सकती है।

लक्षण व रोग जनकता (Symptoms and Pathogenecity) – इस रोग के मुख्य लक्षण हैं-पेट में दर्द, उल्टियाँ, अपेन्डिसाइटिस (appendicitis), अतिसार (diarrhoea), गैस्ट्रिक अल्सर (gastric ulcer), सन्नित (delirium), घबराहट, ऐंठन (convulsions) आदि। परपोषी की आँत में इस परजीवी के होने का कोई विशेष नुकसान नहीं होता है किन्तु संक्रमित बालक कुपोषण का शिकार होकर दुर्बल हो जाते हैं, इनकी वृद्धि मन्द हो जाती है। रोगी को हमेशा वमन की इच्छा बनी रहती है जिससे मन व मस्तिष्क बेचैन रहते हैं। आँत में एस्केरिस की संख्या अधिक होने पर पेट दर्द, भूख न लगना, अनिद्रा, दस्त, उल्टी आदि लक्षण विकसित हो जाते हैं।

एस्केरिस के द्वारा रोगी का उण्डुक (appendix) अवरुद्ध हो जाता है जिससे उदरशूल (colic pain) व उण्डुक पुच्छशोथ (appendicitis) विकार हो जाते हैं। रोगी के पित्तनली, अग्न्याशयी नाल आदि में एस्केरिस के फँस जाने पर स्थिति गम्भीर हो जाती है। एस्केरिस रोगी के शरीर में घूमता रहता है जिससे फेफड़े, आँत की दीवारें व रक्त केशिकाएँ घायल हो जाती हैं जिससे रक्तस्राव प्रारम्भ हो जाता है, फलस्वरूप रोगी दुर्बलता, सूजन, ऐंठन आदि का शिकार हो जाता है। शिशु एस्केरिस विपथगामी भ्रमण द्वारा रोगी के मस्तिष्क, वृक्क, नेत्र, मेरुदण्ड आदि में प्रवेश कर जाता है जिससे इन अंगों को हानि पहुँचती है।

रोकथाम (Control) – अपने आस-पास के वातावरण को स्वच्छ रखना, मल-मूत्र का खुला विसर्जन न करना, प्रदूषित भोजन व सड़े-गले फल-सब्जी आदि से बचना, भोजन करने से पूर्व हाथों को भली-भाँति धोना, शौचालय की साफ-सफाई पर विशेष ध्यान देना व स्वच्छ जल का प्रयोग करना आदि इस रोग की रोकथाम के प्रमुख उपाय हैं। रोग होने पर इस परजीवी को मारने के लिए पाइपराजिन सिट्रेट (piperazin citrate) तथा पाइपराजिन फॉस्फेट (piperazin phosphate) औषधियों का प्रयोग किया जाता है। इसके अतिरिक्त मीबेन्डाजोल (mebendazole), पाइरान्टेल पामोएट (pyrantel pamoate) व ऐल्बेन्डाजोल (albendazole) औषधियाँ भी इस रोग के इलाज में प्रयुक्त की जाती हैं।

निदान एवं चिकित्सा (Diagnosis and Therapy) – एस्केरिस रोग के संक्रमण की पहचान रोगी के मल में इसके अण्डों की उपस्थिति से होती है। एस्केरिस द्वारा होने वाले रोग को एस्केरिएसिस (ascariasis) कहा जाता है। रोगी की आँत से कृमि को निकालने हेतु बथुआ का तेल (oil of chenopodium), डीमेटोड (dematode), मीबेन्डाजोल (mebendazole), जीटोमिसोल-पी (zetomisol-p), हेट्राजान (hetrazan), वर्मिसोल (vermisol), केट्राक्स (ketrax), जेन्टेल (zentel), एन्टीपार (antipar), एल्कोपार (alcopar), डिकैरिस (decaris) आदि औषधियाँ प्रयुक्त की जाती हैं। वर्तमान में 12 घंटे के उपवास के साथ हैक्सिल रिसॉर्सिनाल (hexylresorcinol) का तथा पाइपराजीन (piperazine), हैल्मेसिड सिना के साथ (halmacid with senna) आदि का उपयोग अत्यन्त प्रभावशाली सिद्ध हो रहा है।

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