अनुकूलन
पौधों की बाह्य आकारिकी तथा आन्तरिक संरचना (external morphology and internal structure) पर उनके वातावरण का प्रभाव पड़ता है। पौधों में अपने आपको वातावरण में समायोजित करने की सामर्थ्य होती है जिसे अनुकूलन (adaptation) कहते हैं। दूसरे शब्दों में पौधों में अनुकूलन से तात्पर्य उन विशेष बाह्य अथवा आन्तरिक लक्षणों से है जिनके कारण पौधे किसी विशेष वातावरण में रहने, वृद्धि करने, फलने-फूलने तथा प्रजनन के लिए पूर्णतया सक्षम होते हैं और अपना जीवन-चक्र पूरा करते हैं। इन विशेष पारिस्थितिकीय अनुकूलनों तथा आवास के आधार पर पौधों को भिन्न पारिस्थितिक समूहों में रखा गया है जो निम्नलिखित चार हैं –
1. जलोद्भिद् (Hydrophytes)
2. शुष्कोभिद् = मरुद्भिद् (Xerophytes)
3. मध्योद्भिद् = समोद्भिद् (Mesophytes)
4. लवणोद्भिद् (Halophytes)
I. जलोभिद पौधों में अनुकूलन
(A) जलोभिद् पौधों में आकारिकीय अनुकूलन
1. जड़ों में अनुकूलन
1. जलीय पौधों का शरीर जल के सम्पर्क में रहता है जिससे जल-अवशोषण के लिए जड़ों की आवश्यकता नहीं रह जाती। अतः जड़े बहुत कम विकसित अथवा अनुपस्थित होती हैं, उदाहरण- वॉल्फिया (Wolffa), सिरेटोफिल्लम (Ceratophyllum) आदि।
2. जड़ें यदि उपस्थित हैं तो वे प्रायः रेशेदार (fibrous), अपस्थानिक (adventitious), छोटी तथा शाखाविहीन (unbranched) अथवा बहुत कम शाखीय होती हैं। लेम्ना (Lemna) में इनका कार्य केवल सन्तुलन (balancing) तथा तैरने में सहायता करना है।
3. मूलरोम (root hairs) अनुपस्थित अथवा कम विकसित होते हैं।
4. मूलगोप (root caps) प्रायः अनुपस्थित होती हैं। कुछ पौधों, उदाहरण- समुद्रसोख (Eichhornia) तथा पिस्टिया (Pistia) में मूलगोप के स्थान पर एक अन्य रचना मूल-पॉकेट (root-pocket) होती है।
5. सिंघाड़े (Trapa) की जड़े स्वांगीकारक (assimilatory) होती हैं, अर्थात् हरी होने के कारण प्रकाश-संश्लेषण करती हैं।
2. तनों में अनुकूलन
1. जलनिमग्न पौधों में तने प्रायः लम्बे, पतले, मुलायम तथा स्पंजी होते हैं जिससे पानी के बहाव के कारण इन्हें हानि नहीं होती।
2. स्वतन्त्र तैरक (free floating) पौधों में तना पतला होता है तथा जल की सतह पर क्षैतिज दिशा में तैरता है, उदाहरण-एजोला (Azolla) समुद्रसोख (Eichhormia) तथा पिस्टिया (Pistia) में तना छोटा, मोटा तथा स्टोलन के रूप में (stoloniferous) होता है।
3. स्थिर तैरक (fixed floating) पौधों में तना, धरातल पर फैला रहता है, इसे प्रकन्द (rhizome) कहते हैं। यह जड़ों द्वारा कीचड़ में स्थिर रहता है, उदाहरण- जलकुम्भी (Nymphaed) तथा निलम्बियम (Nelumbium)।
3. पत्तियों में अनुकूलन
1. जलनिमग्न पौधों में पत्तियाँ पतली होती हैं, वेलिसनेरिया (Valisneria) में ये लम्बी तथा फीतेनुमा (ribbon-shaped), पोटामोजेटोन (Potamogeton) में लम्बी, रेखाकार (linear) तथा सिरेटोफिल्लम (Ceratophyllum) में ये महीन तथा कटी-फटी होती हैं। तैरक पौधों की पत्तियाँ बड़ी, चपटी व पूर्ण होती हैं। जलकुम्भी (Nymphaed) की पत्ती की ऊपरी सतह पर मोमीय पदार्थ की परत (waxy coating) होती है तथा पर्णवृन्त लम्बे होते हैं व श्लेष्म से ढके रहते हैं।
2. सिंघाड़े (Trupa) तथा समुद्रसोख (Eichhormia) में पर्णवृन्त फूला होता है तथा स्पंजी होता हैं।
3. कुछ जलस्थली (amphibious) पौधों, जैसे-सेजिटेरिया (Sagittaria), जलधनिया (Ranunculus), आदि में विषमपर्णी (heterophylly) दशा होती है। इसमें जलनिमग्न पत्तियाँ अधिक लम्बी तथा कटी-फटी होती हैं, जल की सतह पर तैरने वाली पत्तियाँ अथवा वायवीय पत्तियाँ चौड़ी व पूर्ण होती हैं। यह अनुकूलन प्रकाश प्राप्ति के लिए होता है। जलनिमग्न पौधों की कटी-फटी पत्तियाँ अधिकतम प्रकाश ग्रहण करने का प्रयास करती हैं।
4.पुष्प व बीज में अनुकूलन
जलनिमग्न पौधों में प्राय: पुष्प उत्पन्न नहीं होते, जहाँ पर पुष्प उत्पन्न होते हैं, उनमें बीज नहीं बनते।
(B) जलोभिद् पौधों में शारीरिकीय अनुकूलन
जलीय पौधों के विभिन्न भागों की आन्तरिक रचना (शारीरिकी) में निम्न विशेषताएँ या अनुकूलन पाए जाते हैं –
1. बाह्यत्वचा (Epidermis) – बाह्यत्वचा प्रायः मृदूतक कोशिकाओं की बनी इकहरी परत के रूप में होती है। इस पर उपत्वचा (cuticle) नहीं होती, परन्तु तैरने वाली पत्तियों की ऊपरी बाह्यत्वचा पर मोमीय परत (उदाहरण- जलकुम्भी, Nymphaea) अथवा रोमिल परत (उदाहरण- साल्विनिया- Salvyinic) होती है। बाह्यत्वचा की कोशिकाओं में प्रायः पर्णहरिम (chlorophyll) पाया जाता है। टाइफा (Typha) में बाह्यत्वचा पर उपचर्म (cuticle) की परत होती है।
2. रन्ध्र (Stomata) – जलनिमग्न (submerged) पौधों में रन्ध्र प्रायः अनुपस्थित होते हैं। तैरक (floating) पौधों में रन्ध्र प्रायः पत्ती की ऊपरी सतह तक ही सीमित रहते हैं; जबकि जलस्थलीय (amphibious) पौधों की जल से बाहर निकली पत्तियों में रन्ध्र दोनों सतहों पर होते हैं।
3. अधस्त्वचा (Hypodermis) – जलनिमग्न पौधों, उदाहरण-हाइड्रिलो (Hydrilla) तथा पोटामोजेटोन (Potamogeton) के तनों में अधस्त्वचा अनुपस्थित होती है, यद्यपि कुछ तैरक (floating) पौधों व जलस्थलीय (amphibious) पौधों में यह मोटी भित्ति वाली मृदूतकीय कोशिकाओं के रूप में अथवा स्थूलकोण ऊतक के रूप में होती है।
4. यान्त्रिक ऊतक (Mechanical Tissue) – जलोभिदों में यान्त्रिक ऊतक प्राय: अनुपस्थित अथवा बहुत कम विकसित होता है।
5. वल्कुट (Cortex) – जड़ व तनों में वल्कुट (cortex) सुविकसित होता है तथा पतली भित्ति की मृदूतक कोशिकाओं का बना होता है। वल्कुट (cortex) के अधिकांश भाग में बड़ी-बड़ी वायु-गुहिकाएँ (air cavities) उत्पन्न हो जाती हैं। इस ऊतक को वायूतंक (aerenchyma) कहते हैं। वायु-गुहिकाओं में भरी वायु के कारण, गैसीय विनिमय सुलभ हो जाता है, पौधे हल्के हो जाते हैं, ताकि पानी में ठहर सकें। इसके अतिरिक्त यह अंगों के मुड़ने के तनाव का प्रतिरोध (resistance to bending stress) भी करता है।
6. पत्तियों में पर्णमध्योतक (Mesophyll Tissue in Leaves) – जलनिमग्न पत्तियों में पर्णमध्योतक अभिन्नित (undifferentiated) होता है। तैरक पत्तियों, जैसे-जलकुम्भी (Nymphaea) में यह खम्भ ऊतक (palisade tissue) व स्पंजी मृदूतक (spongy parenchyma) में भिन्नत होता है, इसमें बड़ी वायु-गुहिकाएँ (air cavities) भी पाई जाती हैं।
7. संवहन बण्डल (Vascular Bundle) – संवहन ऊतक कम विकसित होता है। जलनिमग्ने पौधों में यह कम भिन्नित होता है। जाइलम में प्रायः वाहिकाएँ (tracheids) ही उपस्थित होती हैं, वाहिनिकाएँ (vessels) कम होती हैं, यद्यपि जलस्थलीय (amphibious) पौधों में संवहन बण्डल अपेक्षाकृत अधिक विकसित तथा जाइलम व फ्लोएम में भिन्नत होते हैं।