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‘तोप’ शीर्षक कविता का भाव समझते हुए इसका गद्य में रूपांतरण कीजिए।

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‘तोप’ कविता का गद्य रूपांतरण- ईस्ट इंडिया कंपनी ने कंपनी बाग के प्रवेश द्वार पर जो तोप रखवायी थी, वह आज स्वतंत्र भारत में विरासत बनकर रह गई है। वर्ष 1857 की इस तोप को कंपनी बाग के साथ ही साल में दो अवसरों पर साफ़-सुथरा करते हुए चमकाया जाता है। जैसे कंपनी बाग हमें विरासत में मिली थी, उसी तरह ये तोप भी थी। आजकल सुबह-शाम कंपनी बाग में जो सैलानी टहलने के लिए आते हैं, उन्हें यह तोप बताती है कि किसी समय मैं बहुत ताकतवर थी। उस जमाने में मैंने अच्छे-अच्छे शूरमाओं की धज्जियाँ उड़ा दी थीं। 

आज स्थिति यह है कि इस पर लड़के घुड़सवारी करते हैं। वहाँ से बच्चों के हटते ही चिड़ियाँ उसके ऊपर बैठकर गप-शप करती हैं। गौरैयें तो और भी शैतानी करती हुई इसके अंदर घुस जाती हैं। ऐसा करके वे यह बताती हैं कि कितनी भी बड़ी तोप क्यों न हो, एक दिन तो उसका मुँह बंद हो ही जाता है अर्थात् अन्यायी कितना भी बड़ा क्यों न हो एक न एक दिन अंत अवश्य होता है।

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