यंत्रणाओं के बीच जी रहे हरिहर काका की तुलना लेखक ने मँझधार में फँसी उस नावे से की है, जिस पर बैठे सवार चिल्लाकर भी अपनी जान की रक्षा नहीं कर सकते हैं। इसका कारण यह है कि उनकी चिल्लाहट दूर-दूर तक फैले सागर की उठती-गिरती लहरों में खोकर रह जाती है। इस तरह उसकी मदद के लिए कोई नहीं आ पाता और वह जहाज डूबकर रह जाती है।