Use app×
Join Bloom Tuition
One on One Online Tuition
JEE MAIN 2025 Foundation Course
NEET 2025 Foundation Course
CLASS 12 FOUNDATION COURSE
CLASS 10 FOUNDATION COURSE
CLASS 9 FOUNDATION COURSE
CLASS 8 FOUNDATION COURSE
+1 vote
112k views
in Hindi by (49.8k points)
closed by

दोहे का भावार्थ लिखें:

गो-धन, गज-धन, वाजि-धन और रतन-धन खान।
जब आवत संतोष-धन, सब धन धूरि समान ॥६॥

2 Answers

+1 vote
by (15.1k points)
selected by
 
Best answer

"गोधन, गज-धन, बाजि-धन, और रतन धन-खान।
जब आवे संतोष-धन, सब धन धूरि समान!!" 

अर्थात् संसार में गो-रूपी धन, हाथी-रूपी धन, घोड़े-रूपी धन तो हैं ही, और भी तरह-तरह के रतनों, धनों की खानें मौजूद हैं। लेकिन उनसे आदमी का मन कभी भी नहीं भर सकता। हाँ, जब आदमी के पास सन्तोष-रूपी धन आ जाता है, तब बाकी सभी प्रकार के धन धूल या मिट्टी के समान हो जाया करते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि सन्तोष-रूपी धन पाकर ही आदमी का मन भरा करता है।

इस दोहे में कवि ने कुछ भी कहा है, लगता है कि उसके जीवन के लम्बे अनुभव पर आधारित है। इस कारण उसके कथन का एक-एक अक्षर सत्य प्रतीत होता है। हम अपने चारों तरफ के जीवन में लोगों को देखते हैं, सभी धन के पीछे अन्धाधुंध भाग रहे हैं। एक रुपया मिलने पर दो रुपये की, दो मिलने पर तीन-चार और इसी प्रकार सैकड़ों-हज़ारों,लाखों-करोड़ों रुपये प्राप्त करने की अन्धी दौड़ बढ़ती ही जाती है। धन पाने के चक्कर में पड़कर आदमी सच-झूठ, अच्छे-बुरे, अपने-पराये के भेद-भाव तो भल ही जाता है, उसे रोटीतक खाने की सुध-बुध नहीं रहा करती, जिसके लिए इतने पापड़ बेला करता है धन के लिए पुत्र को पिता से, बेटी को माँ से, बहन को भाई से शत्रता करते या झगड़े मोल लेते हुए तो देखा ही जा सकता है, कई बार इन्हें एक-दूसरे की हत्या करते हुए भी देखा जाता है। धन का लालच आदमी को नीच से नीच कर्म करने के लिए मजबूर किया करता है। धर्म-ईमान की तो बात ही क्या, धन की खातिर अपनी सन्तानों तक को लोग बेच दिया करते हैं। नारियाँ तन बेचकर धन पाना चाहती हैं। धन की खातिर आदमी गधे को भीबाप मान लिया करता है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि धन का लालच आदमी कोअपने सहज स्वाभाविक रूप में न रहने देकर, उसे हर प्रकार से दीन-हीन और नीच कर्मकरने वाला बना देता है, फिर भी धन पाने की इच्छाएँ शान्त न होकर निरन्तर बढ़ती ही जाती हैं।

आज हमारे चारों तरफ कई प्रकार की मारा-मारी मच रही है। लूट-पाट हो रही है। हिंसा, अन्याय और अत्याचार का बाजार गर्म है। तरह-तरह के भ्रष्टाचार फैल रहे हैं। जहाँ जिस का वश चलता है, अपना पेट भरने और तन ढकने के नाम पर दूसरों का पेट तोकाट ही रहा है, श्मशान के पण्डों के समान दूसरों के कपड़े भी उतार लेना चाहता है। इस प्रकार के कार्य-व्यापारों की जड़ में जाकर जब हम कारण जानने की कोशिश करते हैं तो मूल कारण धन को ही पाते हैं। दूसरों का गला काट ढेरों धन जमा करके भी तो आदमी का पेट नहीं भरता । वह सन्तुष्ट नहीं हो पाता । फिर खानी तो सभी ने दो रोटियाँ हीहोती है। इस संसार से जाते समय आज तक धन-सम्पत्ति को न तो कोई साथ लेकर गयाहै और न भविष्य में भी कभी जाने वाला है. फिर क्या कारण है कि अपने-आप से ही असन्तुष्ट रहकर हम मारा-मारी करते फिरते हैं। खुद तो व्याकुल रहते ही हैं, अपने लालची कार्य-व्यापारों से बाकी सबको भी परेशान किये रहते हैं । क्यों नहीं समझना चाहते कि संसार के पदार्थ, धन-सम्पति को ढेरों इकट्ठा करके भी मनुष्य का मन कभी सुखी नहीं हो सकता। वह तो केवल सन्तोष-रूपी धन ही है कि जिसे पाकर सच्चा सुख-चैन मिल सकताहै। किन्तु हम हैं कि सन्तोष-रूपी धन पाने का कभी झूठा-सच्चा प्रयत्न भी नहीं करते। हमेशा नष्ट हो जाने वाले, या फिर यहीं रह जाने वाले धन के पीछे भागकर अपना लोक-परलोक दोनों बिगाड़ रहे हैं।

धर्म, राजनीति, संस्कृति, साहित्य, कला आदि जीवन के किसी भी क्षेत्र में चले जाइये।सभी जगह असन्तोष का नंगा नाच दिखाई देगा। सभी क्षेत्रों के लोग दूसरों से असन्तुष्टहोकर बदला लेने की कोशिश करते हुए दीख पडेंगे। वास्तव में दूसरों से असन्तुष्ट नहीहुआ करता है, जो अपने आप और अपने कार्यों से, अपने संसार से सन्तुष्ट नहीं होता। इसका कारण है इच्छाओं, लालसाओं और स्वार्थों का विस्तार। आज हर आदमी ने इन सबका इस हद तक विस्तार कर लिया है कि अब उन्हें समेट पाना संभव नहीं हो पा रहा।असन्तोष और दुखी रहने का मुख्य कारण यही है। इसी से छुटकारा पाने का उपदेश ज्ञानीजनों ने दिया है। यदि मनुष्य अपनी इच्छाओं को समेट ले, जीने के लिए जितना बहुत आवश्यक है, उतने से अधिक लेने की चेष्टा न करे, तो निश्चय ही अनेक झगड़ों और समस्याओं का सरलता से निपटारा हो सकता है। ज्ञानियों ने इसका उपाय बताया है। वहउपाय है मन पर काबू रखना ! मन पर काबू रखने का अर्थ है इच्छाओं का विस्तार रोकना।जो व्यक्ति इच्छाओं पर काबू पा लेता है, वही सन्तष्ट है। यह सन्तोष-रूपी धन जब आदमीको प्राप्त हो जाता है, तब उसे अन्य किसी भी प्रकार के धन की इच्छा नहीं रह जाती।

धन पाने के लिए एक राजा दूसरे राजा पर चढ़ाई किया करता था। धन के लिए ही बड़े-बड़े युद्ध हुए। आज भी संसार में जहाँ कहीं कुछ गडबड हो रही है. तरह-तरह की झड़पें हो रही हैं, राज-द्वेष के लिभिन्न खेमों में संसार बँट रहा है, इस सबके मूल में धन की लालसा ही तो है। लोग रिश्वत खाते हैं. भ्रष्टाचार करते हैं. काला बाजार और कालेधन्धे किया करते हैं, किसलिए ? धनपति बनने के लिए ही न! ऐसे धन कमाने के चक्कर में आदमी भूल जाता है कि इस प्रकार के कार्यों, उनके कारण बढी इच्छाओं का कहीं कोई अन्त नहीं है। अन्त तो क्या, इन राहों पर चलकर धन कमाते समय हर समय तरह-तरह के खतरे भी बने रहा करते हैं। उनके कारण मन हमेशा अशान्त होकर तनावग्रस्त रहा करता है। कहावत है कि ऐसा गहना किस काम का जो कान या नाक को ही छेद डाले। उसी प्रकार यह भी तो कहा जा सकता है कि ऐसा धन किस काम का जो मन की शान्ति हरकर हर समय मन-मस्तिष्क को तनाव-मस्त बनाये रखे। इससे अच्छा तो भूखा-प्यासा रह लेना है। चैन की यदि रूखी-सूखी दो रोटी ही मिल जायें, तो तनाव से मिलने वाली चिकनी-चुपड़ी चार रोटी से कहीं अच्छी हैं।

सन्त जन और ज्ञानी लोक कह गये हैं कि यह मन बडा पापी है। यही एक इन्द्रियों का राजा और लालसाओं का स्वामी है। यदि मनुष्य चाहता है कि वह सुख-शान्ति का जीवन जी सके, तो उसके लिए आवश्यक है कि अपने मन पर काब रखे। वास्तव में मनकी साधना ही सन्तोष की साधना है । सन्तोष की साधना ही सच्चे सुख की साधना है। मनुष्य को प्रयत्न करके इस प्रकार की साधना करनी चाहिए! याद रहे, जिसने मन साथ लिया, उसने सभी कुछ साध लिया। इसका अर्थ है मन को साधकर सन्तोष-रूपी उस सच्चे धन को पा लिया, जिसे पा लेने के बाद और कुछ भी प्राप्त करने की इच्छा बाकी नहीं रह जाया करती। इसलिए यदि निष्कण्टक और निश्चिन्त जीवन जीना है, यदि सुख-चैन का सच्चा रहस्य जानना है, यदि धन-सम्पत्ति का वास्तविक स्वरूप, लाभ और परिणाम जानने की शुद्ध इच्छा है, तो प्रयत्न करके सन्तोष-रूपी धन को प्राप्त करने की चेष्टा करो। उससे बाह्य, इससे परे कुछ भी नहीं है। सन्तोष-रूपी धन संचित कर लेने के बाद और कुछ भी लेना, कुछ भी पाना शेष नहीं रह जाता ! अतः सच्ची सुख-शान्ति के इच्छु को अपने-आपको सन्तोष-धन की नेक कमाई में मग्न कर देना चाहिए।

+1 vote
by (56.1k points)

तुलसीदास जी कहते हैं कि मनुष्य के पास भले ही गौ रूपी धन हो, गज (हाथी) रूपी धन हो, वाजि (घोड़ा) रूपी धन हो और रत्न रूपी धन का भंडार हो, वह कभी संतुष्ट नहीं हो सकता। जब उसके पास सन्तोष रूपी धन आ जाता है, तो बाकी सभी धन उसके लिए धूल या मिट्टी के बराबर है। अर्थात् सन्तोष ही सबसे बड़ी सम्पत्ति है।

Related questions

Welcome to Sarthaks eConnect: A unique platform where students can interact with teachers/experts/students to get solutions to their queries. Students (upto class 10+2) preparing for All Government Exams, CBSE Board Exam, ICSE Board Exam, State Board Exam, JEE (Mains+Advance) and NEET can ask questions from any subject and get quick answers by subject teachers/ experts/mentors/students.

Categories

...