हिंदी भाषा को राष्ट्रभाषा का पद मिलना चाहिए, यह नारा अब बिना मौसम का नारा है। हिंदी को राष्ट्रभाषा बनना नहीं है, वह राष्ट्रभाषा है। आज वह भारत की प्रमुख राजभाषा है, अंग्रेजी का स्थान उसके सामने गौण है। इसी प्रकार जो हिंदी प्रेमी अति उत्साह या क्रोध में आकर यह कह बैठते हैं कि ‘अरे मैं हिंदी के लिए रक्त दूंगा’ – वे भी बिना मौसम की बात कर रहे हैं। हिंदी अब रक्त लेकर क्या करेगी? अब तो उसे पैसे और पसीने की ज़रूरत है। पैसे उनके लिए चाहिए जिनके लिए हिंदी की किताबें और अखबार निकालते हैं और पसीना उनको चाहिए जो हिंदी के लेखक, कवि और पत्रकार हैं और जिन पर यह जिम्मा है कि वे विश्वविद्यालय स्तर की सारी पढ़ाई हिंदी के माध्यम से करें और शीघ्र ही हिंदी को विद्या की ऐसी भाषा बना दें कि उसके जरिए भारतवासियों के मस्तिष्क का चरम विकास हो सके। पसीना आज उनका भी चाहिए जो हिंदी जानते हैं और केंद्रीय या प्रांतीय सरकारों के दफ्तरों में काम कर रहे हैं। अब उन्हें पूरी छूट है कि वे केंद्रीय शासन के अधीन होने पर भी, यदि चाहें तो हिंदी में काम कर सकते हैं। यह स्वतंत्रता मिल जाने पर भी यदि वे हिंदी में काम करने से मुकरते हैं, तो उनकी देशभक्ति की भावना अधूरी है।
1) सरकारी दफ्तरों में कार्य करने वाले अपनी देशभक्ति का परिचय किस प्रकार दे सकते हैं?
2) ‘अब तो हिंदी को पैसे और पसीने की जरूरत है’ – इस पंक्ति से लेखक का क्या आशय है?
3) लेखकों, कवियों और पत्रकारों पर आज क्या उत्तरदायित्व है?
4) भारत की प्रमुख राजभाषा कौन सी है?
5) उपर्युक्त गद्यांश का उचित शीर्षक दीजिएं।