लेखक ईश्वर की पूजा के परम्परागत ढंग से भिन्न ईश्वर-पूजा की बात कर रहा है। संसार में लोग मंदिर, मस्जिद में जाते हैं, प्रार्थना-कीर्तन करते हैं, नमाज अदा करते हैं। इस प्रकार वे ईश्वर की पूजा करते हैं और अपने जीवन में खुशहाली की कामना करते हैं। वे मनुष्य की उपेक्षा करते हैं। उससे प्रेम नहीं करते। उसके श्रम तथा सेवा का तिरस्कार करते हैं। लेखक कहता है कि मनुष्य की उपेक्षा करके ईश्वर की पूजा नहीं हो सकती। सच्ची ईश्वर पूजा मनुष्य की पूजा करना ही है। मनुष्य के श्रम तथा प्रेम और स्वार्थ का तिरस्कार करना नास्तिकता है। मनुष्य के श्रम का मूल्य पैसों से नहीं चुकाया जा सकता। ऐसा करना ईश्वर का अपमान है। मंदिर, मस्जिद, गिरजाघर आदि में ईश्वर नहीं रहता। वह मजदूरी करने वालों के दिलों में रहता है। आगे से ईश्वर की तलाश इन स्थानों पर नहीं करनी चाहिए। धार्मिक पुस्तकों के पढ़ने से भी ईश्वर नहीं मिलता। मनुष्य और उसकी प्रेमभरी मजदूरी का सम्मान करना ही ईश्वर की सच्ची पूजा है। बिना हाथ के काम के धार्मिक चिन्तन बेकार है। मजदूरी की धूल मुँह पर लगने से ही धर्म की उन्नति होती है। खेत में काम करने, लकड़ी काटने, पत्थर तराशने आदि के आसन से ही हम ईश्वर-प्राप्ति कर सकते हैं। मेरा मानना है कि मनुष्य और उसके श्रम की निन्दा करके ईश्वर प्राप्त नहीं होता। धर्म के परम्परागत तरीके ईश्वर की पूजा में सहायक नहीं होते।