लेखक और उसके मित्र कौसानी बर्फ देखने गए थे। नैनीताल, रानीखेत और मझकाली के भयानक मोड़ों को पार करके वे बस द्वारा कोसी पहुँचे। रास्ता कष्टप्रद, भयानक तथा सूखा था। कहीं हरियाली नहीं थी। ऊबड़-खाबड़ सड़क पर नौसिखिया ड्राइवर लापरवाही से बस चला रहा था। कोसी पहुँचने तक सबके चेहरे पीले पड़ गए थे। बस अल्मोड़ा जा रही थी। कौसानी के लिए कोसी से दूसरी बस मिलती थी। लेखक अपने एक साथी के साथ कोसी में ही बस से उतर गयो। दो घण्टे बाद आई दूसरी बस से शुक्ल जी तथा चित्रकार सेन उतरे। शुक्ल जी का चेहरा प्रफुल्लित था। उनको देखकर लेखक की भी सारी थकान दूर हो गई । सेन का स्वभाव अत्यन्त मधुर था। वह शीघ्र ही सबके साथ घुल-मिल गया। कोसी से चारों लोग कौसानी के लिए बस में सवार हुए। अब रास्ते का दृश्य बदला हुआ था। कल-कल करके बहती कोसी नदी, उसके किनारे स्थिर हरे-भरे खेत और सुन्दर गाँव आकर्षक लग रहे थे। रास्ते में अनेक बस-स्टेशन, डाकघर तथा चाय की दुकानें थीं। कोसी तथा उसमें मिलने वाले नदी-नालों के पुल थे तथा चीड़ के निर्जन वन भी थे। टेढ़ी-मेढ़ी कंकरीली सड़क पर बस धीरे-धीरे चल रही थी। वहाँ तक बर्फ के दर्शन नहीं हुए थे। अत: लेखक कुछ निराश और खिन्न था।
सोमेश्वर की घाटी के उत्तर में ऊँची पर्वतमाला के शिखर पर कौसानी बसा था। वह एक छोटा-सा गाँव-था। बस अड्डे पर उतरते ही अकस्मात् लेखक की निगाह कल्यूर की रंग-बिरंगी घाटी पर पड़ी। पचासों मील चौड़ी यह घाटी हरे-भरे खेतों, लाल-लाल रास्तों, नदियों आदि के कारण बहुत खूबसूरत लग रही थी। दूर घाटी के पार बादलों में हिमालय की बर्फीली चोटियाँ छिपी थीं। अचानक लेखक ने बादल छटने पर एक छोटे बर्फीले शिखर को देखा। वह प्रसन्नता से चिल्लाया -‘वह देखो बर्फ’। फिर सभी डाकबंगले में अपना सामान रखकर बिना चाय पिये ही बैठ गए और बादलों के हटने का इंतजार करने लगे। धीरे-धीरे बादल छैटे तो उनको हिम से ढंके हिमालय के दर्शन हुए।